Sunday 2 March 2014

भारत मे प्लास्टिक सर्जरी (Plastic Surgery) का इतिहास

प्लास्टिक सर्जरी (Plastic Surgery) जो आज की सर्जरी की दुनिया मे आधुनिकतम विद्या है इसका अविष्कार भारत मे हुआ है| सर्जरी का अविष्कार तो हुआ हि है प्लास्टिक सर्जरी का अविष्कार भी यहाँ हि हुआ है| प्लास्टिक सर्जरी मे कहीं की प्रचा को काट के कहीं लगा देना और उसको इस तरह से लगा देना की पता हि न चले यह विद्या सबसे पहले दुनिया को भारत ने दी है|

1780 मे दक्षिण भारत के कर्णाटक राज्य के एक बड़े भू भाग का राजा था हयदर अली| 1780-84 के बीच मे अंग्रेजों ने हयदर अली के ऊपर कई बार हमले किये और एक हमले का जिक्र एक अंग्रेज की डायरी मे से मिला है| एक अंग्रेज का नाम था कोर्नेल कूट उसने हयदर अली पर हमला किया पर युद्ध मे अंग्रेज परास्त हो गए और हयदर अली ने कोर्नेल कूट की नाक काट दी|

कोर्नेल कूट अपनी डायरी मे लिखता है के “मैं पराजित हो गया, सैनिको ने मुझे बन्दी बना लिया, फिर मुझे हयदर अली के पास ले गए और उन्होंने मेरा नाक काट दिया|” फिर कोर्नेल कूट लिखता है के “मुझे घोडा दे दिया भागने के लिए नाक काट के हात मे दे दिया और कहा के भाग जाओ तो मैं घोड़े पे बैठ के भागा| भागते भागते मैं बेलगाँव मे आ गया, बेलगाँव मे एक वैद्य ने मुझे देखा और पूछा मेरी नाक कहाँ कट गयी? तो मैं झूट बोला के किसीने पत्थर मार दिया, तो वैद्य ने बोला के यह पत्थर मारी हुई नाक नही है यह तलवार से काटी हुई नाक है, मैं वैद्य हूँ मैं जानता हूँ| तो मैंने वैद्य से सच बोला के मेरी नाक काटी गयी है| वैद्य ने पूछा किसने काटी? मैंने बोला तुम्हारी राजा ने काटी| वैद्य ने पूछा क्यों काटी तो मैंने बोला के उनपर हमला किया इसलिए काटी|फिर वैद्य बोला के तुम यह काटी हुई नाक लेके क्या करोगे? इंग्लैंड जाओगे? तो मैंने बोला इच्छा तो नही है फिर भी जाना हि पड़ेगा|”

यह सब सुनके वो दयालु वैद्य कहता है के मैं तुम्हारी नाक जोड़ सकता हूँ, कोर्नेल कूट को पहले विस्वास नही हुआ, फिर बोला ठेक है जोड़ दो तो वैद्य बोला तुम मेरे घर चलो| फिर वैद्य ने कोर्नेल को ले गया और उसका ऑपरेशन किया और इस ऑपरेशन का तिस पन्ने मे वर्णन है| ऑपरेशन सफलता पूर्वक संपन्न हो गया नाक उसकी जुड़ गयी, वैद्य जी ने उसको एक लेप दे दिया बनाके और कहा की यह लेप ले जाओ और रोज सुबह शाम लगाते रहना| वो लेप लेके चला गया और 15-17 दिन के बाद बिलकुल नाक उसकी जुड़ गयी और वो जहाज मे बैठ कर लन्दन चला गया|

फिर तिन महीने बाद ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे खड़ा हो कोर्नेल कूट भाषण दे रहा है और सबसे पहला सवाल पूछता है सबसे के आपको लगता है के मेरी नाक कटी हुई है? तो सब अंग्रेज हैरान होक कहते है अरे नही नही तुम्हारी नाक तो कटी हुई बिलकुल नही दिखती| फिर वो कहानी सुना रहा है ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे के मैंने हयदर अली पे हमला किया था मैं उसमे हार गया उसने मेरी नाक काटी फिर भारत के एक वैद्य ने मेरी नाक जोड़ी और भारत की वैद्यों के पास इतनी बड़ी हुनर है इतना बड़ा ज्ञान है की वो काटी हुई नाक को जोड़ सकते है|

फिर उस वैद्य जी की खोंज खबर ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे ली गयी, फिर अंग्रेजो का एक दल आया और बेलगाँव की उस वैद्य को मिला, तो उस वैद्य ने अंग्रेजो को बताया के यह काम तो भारत के लगभग हर गाँव मे होता है; मैं एकला नहीं हूँ ऐसा करने वाले हजारो लाखों लोग है| तो अंग्रेजों को हैरानी हुई के कोन सिखाता है आपको ? तो वैद्य जी कहने लगे के हमारे इसके गुरुकुल चलते है और गुरुकुलों मे सिखाया जाता है|

फिर अंग्रेजो ने उस गुरुकुलों मे गए उहाँ उन्होंने एडमिशन लिया, विद्यार्थी के रूप मे भारती हुए और सिखा, फिर सिखने के बाद इंग्लॅण्ड मे जाके उन्होंने प्लास्टिक सर्जरी शुरू की| और जिन जिन अंग्रेजों ने भारत से प्लास्टिक सर्जरी सीखी है उनकी डायरियां हैं| एक अंग्रेज अपने डायरी मे लिखता है के ‘जब मैंने पहली बार प्लास्टिक सर्जरी सीखी, जिस गुरु से सीखी वो भारत का विशेष आदमी था और वो नाइ था जाती का| मने जाती का नाइ, जाती का चर्मकार या कोई और हमारे यहाँ ज्ञान और हुनर के बड़े पंडित थे| नाइ है, चर्मकार है इस आधार पर किसी गुरुकुल मे उनका प्रवेश वर्जित नही था, जाती के आधार पर हमारे गुरुकुलों मे प्रवेश नही हुआ है, और जाती के आधार पर हमारे यहाँ शिक्षा की भी व्यवस्था नही था| वर्ण व्यवस्था के आधार पर हमारे यहाँ सबकुछ चलता रहा| तो नाइ भी सर्जन है चर्मकार भी सर्जन है| और वो अंग्रेज लिखता है के चर्मकार जादा अच्चा सर्जन इसलिए हो सकता है की उसको चमड़ा सिलना सबसे अच्छे तरीके से आता है|

एक अंग्रेज लिख रहा है के ‘मैंने जिस गुरु से सर्जरी सीखी वो जात का नाइ था और सिखाने के बाद उन्होंने मुझसे एक ऑपरेशन करवाया और उस ऑपरेशन की वर्णन है| 1792 की बात है एक मराठा सैनिक की दोनों हात युद्ध मे कट गए है और वो उस वैद्य गुरु के पास कटे हुए हात लेके आया है जोड़ने के लिए| तो गुरु ने वो ऑपरेशन उस अंग्रेज से करवाया जो सिख रहा था, और वो ऑपरेशन उस अंग्रेज ने गुरु के साथ मिलके बहुत सफलता के साथ पूरा किया| और वो अंग्रेज जिसका नाम डॉ थॉमस क्रूसो था अपनी डायरी मे कह रहा है के “मैंने मेरे जीवन मे इतना बड़ा ज्ञान किसी गुरु से सिखा और इस गुरु ने मुझसे एक पैसा नही लिया यह मैं बिलकुल अचम्भा मानता हूँ आश्चर्य मानता हूँ|” और थॉमस क्रूसो यह सिख के गया है और फिर उसने प्लास्टिक सेर्जेरी का स्कूल खोला, और उस स्कूल मे फिर अंग्रेज सीखे है, और दुनिया मे फैलाया है| दुर्भाग्य इस बात का है के सारी दुनिया मे प्लास्टिक सेर्जेरी का उस स्कूल का तो वर्णन है लेकिन इन वैद्यो का वर्णन अभी तक नही आया विश्व ग्रन्थ मे जिन्होंने अंग्रेजो को प्लास्टिक सेर्जेरी सिखाई थी|

Saturday 28 September 2013

कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के पिताश्री: महर्षि पाणिनि - Ancient Programming By Maharshi Panini

महर्षि पाणिनि के बारे में बताने पूर्व में आज की कंप्यूटर प्रोग्रामिंग किस प्रकार कार्य करती है इसके बारे में कुछ बताना चाहूँगा

आज की कंप्यूटर प्रोग्रामिंग भाषाएँ जैसे C, C++, Java आदि में प्रोग्रामिंग हाई लेवल लैंग्वेज (high level language) में लिखे जाते है जो अंग्रेजी के सामान ही होती है | इसे कंप्यूटर की गणना सम्बन्धी व्याख्या (theory of computation) जिसमे प्रोग्रामिंग के syntex आदि का वर्णन होता है, के द्वारा लो लेवल लैंग्वेज (low level language) जो विशेष प्रकार का कोड होता है जिसे mnemonic कहा जाता है जैसे जोड़ के लिए ADD, गुना के लिए MUL आदि में परिवर्तित किये जाते है | तथा इस प्रकार प्राप्त कोड को प्रोसेसर द्वारा द्विआधारी भाषा (binary language: 0101) में परिवर्तित कर क्रियान्वित किया जाता है |

इस प्रकार पूरा कंप्यूटर जगत Theory of Computation पर निर्भर करता है |

इसी Computation पर महर्षि पाणिनि (लगभग 500 ई पू) ने एक पूरा ग्रन्थ लिखा था

महर्षि पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बड़े व्याकरण विज्ञानी थे | इनका जन्म उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पिंगल का बड़ा भाई मानते है | इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है।
इनके द्वारा भाषा के सन्दर्भ में किये गये महत्त्व पूर्ण कार्य 19वी सदी में प्रकाश में आने लगे |
19वी सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी Franz Bopp (14 सितम्बर 1791 – 23 अक्टूबर 1867) ने श्री पाणिनि के कार्यो पर गौर फ़रमाया । उन्हें पाणिनि के लिखे हुए ग्रंथों में तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के नए मार्ग मिले |

इसके बाद कई संस्कृत के विदेशी चहेतों ने उनके कार्यो में रूचि दिखाई और गहन अध्ययन किया जैसे: Ferdinand de Saussure (1857-1913), Leonard Bloomfield (1887 – 1949) तथा एक हाल ही के भाषा विज्ञानी Frits Staal (1930 – 2012).

तथा इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए 19वि सदी के एक जर्मन विज्ञानी Friedrich Ludwig Gottlob Frege (8 नवम्बर 1848 – 26 जुलाई 1925 ) ने इस क्षेत्र में कई कार्य किये और इन्हें आधुनिक जगत का प्रथम लॉजिक विज्ञानी कहा जाने लगा |

जबकि इनके जन्म से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही श्री पाणिनि इन सब पर एक पूरा ग्रन्थ लिख चुके थे

अपनी ग्रामर की रचना के दोरान पाणिनि ने Auxiliary Symbols (सहायक प्रतीक) प्रयोग में लिए जिसकी सहायता से कई प्रत्ययों का निर्माण किया और फलस्वरूप ये ग्रामर को और सुद्रढ़ बनाने में सहायक हुए |

इसी तकनीक का प्रयोग आधुनिक विज्ञानी Emil Post (फरवरी 11, 1897 – अप्रैल 21, 1954) ने किया और आज की समस्त computer programming languages की नीव रखी |
Iowa State University, अमेरिका ने पाणिनि के नाम पर एक प्रोग्रामिंग भाषा का निर्माण भी किया है जिसका नाम ही पाणिनि प्रोग्रामिंग लैंग्वेज रखा है: यहाँ देखे - http://www.paninij.org/

एक शताब्दी से भी पहले प्रिसद्ध जर्मन भारतिवद मैक्स मूलर (१८२३-१९००) ने अपने साइंस आफ थाट में कहा -

"मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके । इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि 2,50,000 शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है ।

अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का 800 धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट 121 मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके ।"

The M L B D News letter ( A monthly of indological bibliography) in April 1993, में महर्षि पाणिनि को first softwear man without hardwear घोषित किया है। जिसका मुख्य शीर्षक था " Sanskrit software for future hardware "
जिसमे बताया गया " प्राकृतिक भाषाओं (प्राकृतिक भाषा केवल संस्कृत ही है बाकि सब की सब मानव रचित है ) को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाने के तीन दशक की कोशिश करने के बाद, वैज्ञानिकों को एहसास हुआ कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में भी हम 2600 साल पहले ही पराजित हो चुके है। हालाँकि उस समय इस तथ्य किस प्रकार और कहाँ उपयोग करते थे यह तो नहीं कह सकते, पर आज भी दुनिया भर में कंप्यूटर वैज्ञानिक मानते है कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण सभी कंप्यूटर की समस्याओं को हल करने में सक्षम है।

व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संगृहीत हैं।

NASA के वैज्ञानिक Mr.Rick Briggs.ने अमेरिका में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (artificial intelligence) और पाणिनी व्याकरण के बीच की शृंखला खोज की। प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाना बहुत मुस्किल कार्य था जब तक कि Mr.Rick Briggs. द्वारा संस्कृत के उपयोग की खोज न गयी।
उसके बाद एक प्रोजेक्ट पर कई देशों के साथ करोड़ों डॉलर खर्च किये गये।

महर्षि पाणिनि शिव जी बड़े भक्त थे और उनकी कृपा से उन्हें महेश्वर सूत्र से ज्ञात हुआ जब शिव जी संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि से उन्होंने संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की थी। तथा इन्होने महादेव की कई स्तुतियों की भी रचना की |

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्त्तुकामो सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥ -माहेश्वर सूत्र

पाणिनीय व्याकरण की महत्ता पर विद्वानों के विचार:

"पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है" (लेनिन ग्राड के प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी)।

"पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं" (कोल ब्रुक)।

"संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है... यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है" (सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर)।

"पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा"। (प्रो. मोनियर विलियम्स)

विश्व के पहले शल्य चिकित्सक - आचार्य सुश्रुत || Father of Surgery : Sushruta

सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है

शल्य चिकित्सा (Surgery) के पितामह और 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की। सुश्रुत संहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है।

(सुश्रुत संहिता में सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र कहा है। विश्वामित्र से कौन से विश्वामित्र अभिप्रेत हैं, यह स्पष्ट नहीं। सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। काशीपति दिवोदास का समय ईसा पूर्व की दूसरी या तीसरी शती संभावित है। सुश्रुत के सहपाठी औपधेनव, वैतरणी आदि अनेक छात्र थे। सुश्रुत का नाम नावनीतक में भी आता है। अष्टांगसंग्रह में सुश्रुत का जो मत उद्धृत किया गया है; वह मत सुश्रुत संहिता में नहीं मिलता; इससे अनुमान होता है कि सुश्रुत संहिता के सिवाय दूसरी भी कोई संहिता सुश्रुत के नाम से प्रसिद्ध थी। सुश्रुत के नाम पर आयुर्वेद भी प्रसिद्ध हैं। यह सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम् - सिद्धोपदेशसंग्रह)। सुश्रुत के उत्तरतंत्र को दूसरे का बनाया मानकर कुछ लोग प्रथम भाग को सुश्रुत के नाम से कहते हैं; जो विचारणीय है। वास्तव में सुश्रुत संहिता एक ही व्यक्ति की रचना है।)

सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोडऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। मद्य संज्ञाहरण का कार्य करता था। इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर सरंचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी है.

सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है।

सुश्रुत संहिता दो खण्डों में विभक्त है : पूर्वतंत्र तथा उत्तरतंत्र

पूर्वतंत्र : पूर्वतंत्र के पाँच भाग हैं- सूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, कल्पस्थान तथा चिकित्सास्थान । इसमें १२० अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के प्रथम चार अंगों (शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतंत्र, वाजीकरण) का विस्तृत विवेचन है। (चरकसंहिता और अष्टांगहृदय ग्रंथों में भी १२० अध्याय ही हैं।)

उत्तरतंत्र : इस तंत्र में ६४ अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के शेष चार अंगों (शालाक्य, कौमार्यभृत्य, कायचिकित्सा तथा भूतविद्या) का विस्तृत विवेचन है। इस तंत्र को 'औपद्रविक' भी कहते हैं क्योंकि इसमें शल्यक्रिया से होने वाले 'उपद्रवों' के साथ ही ज्वर, पेचिस, हिचकी, खांसी, कृमिरोग, पाण्डु (पीलिया), कमला आदि का वर्णन है। उत्तरतंत्र का एक भाग 'शालाक्यतंत्र' है जिसमें आँख, कान, नाक एवं सिर के रोगों का वर्णन है।

सुश्रुतसंहिता में आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन है:

(१) छेद्य (छेदन हेतु)
(२) भेद्य (भेदन हेतु)
(३) लेख्य (अलग करने हेतु)
(४) वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए)
(५) ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए)
(६) अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए)
(७) विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए)
(८) सीव्य (घाव सिलने के लिए)

सुश्रुत संहिता में शल्य क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इस महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदसों (), २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। ऊपर जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं-

1. अर्द्धआधार,
2. अतिमुख,
3. अरा,
4. बदिशा
5. दंत शंकु,
6. एषणी,
7. कर-पत्र,
8. कृतारिका,
9. कुथारिका,
10. कुश-पात्र,
11. मण्डलाग्र,
12. मुद्रिका,
13. नख
14. शस्त्र,
15. शरारिमुख,
16. सूचि,
17. त्रिकुर्चकर,
18. उत्पल पत्र,
19. वृध-पत्र,
20. वृहिमुख
तथा
21. वेतस-पत्र

आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने विशेष जोर दिया है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है।

इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थिभंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, सुश्रुतसंहिता में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा नेत्र-रोगों के २६ प्रकार बताए गए हैं।

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

अस्थिभंग, कृत्रिम अंगरोपण, प्लास्टिक सर्जरी, दंतचिकित्सा, नेत्रचिकित्सा, मोतियाबिंद का शस्त्रकर्म, पथरी निकालना, माता का उदर चीरकर बच्चा पैदा करना आदि की विस्तृत विधियाँ सुश्रुतसंहिता में वर्णित हैं।

आप ऊपर चित्र मे देख सकते है की किस प्रकार आचार्य सुश्रुत अपने शिष्यों को शल्यक्रिया का अभ्यास विभिन्न निर्जीव वस्तुओं पर करवाते थे

सुश्रुत सहिंता को हिंदी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -> http://peterffreund.com/Vedic_Literature/sushruta/

सुश्रुत सहिंता को अंग्रेजी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -> http://chestofbooks.com/health/india/Sushruta-Samhita/index.html

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है।

शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है।

‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

आधुनिकतम विधियों का भी उल्लेख इसमें है। कई विधियां तो ऐसी भी हैं जिनके सम्बंध में आज का चिकित्सा शास्त्र भी अनभिज्ञ है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शल्य क्रिया अत्यंत उन्नत अवस्था में थी, जबकि शेष विश्व इस विद्या से बिल्कुल अनभिज्ञ था।

द्विआधारीय गणित के जनक - महर्षि पिंगल | Father of Binary Number System - Pingala

महर्षि पिंगल का जन्म लगभग 400 ईसा पूर्व का माना जाता है । कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पाणिनि का छोटा भाई मानते है | महर्षि पिंगल उस समय के महान लेखकों में एक थे । इन्होने छन्दःशास्त्र की रचना की ।

छन्दःशास्त्र आठ अलग अलग अध्यायों में विभक्त है |

आठवे अध्याय में पिंगल ने छंदों को संक्षेप करने तथा उनके वर्गीकरण के बारे में लिखा । तथा द्विआधारीय रचनाओं को गणितीय रूप में लिखने के बारे में बताया ।तथा इनके छंदों की लम्बाई नापने के लिए वर्णों की लम्बाई या उसे उच्चारित (बोलने) में लगने वाले समय के आधार पर उसे दो भागों में बांटा :- गुरु (बड़े के लिए) तथा लधु (छोटे के लिए) |

इसके लिए सर्व प्रथम एक पद (वाक्य) को वर्णों में विभाजित करना होता है विभाजित करने हेतु निम्न नियम दिए गये है :

1. एक वर्ण में स्वर (Vowel) अवश्य होना चाहिए तथा इसमें अवश्य केवल एक ही स्वर होना चाहिए |

2. एक वर्ण सदैव व्यंजन से प्रारंभ होना चाहिए परन्तु वर्ण स्वर से प्रारंभ हो सकता है केवल यदि वर्ण लाइन के प्रारंभ में हो |

3.किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए ।

4.जो वर्ण छोटे स्वर से अंत होता है (अ इ उ आदि ) उसे लघु तथा बाकि सारे गुरु कहे जाते है अर्थात जिस किसी वर्ण के पीछे कोई मात्रा न हो वो लघु (Light) तथा मात्रा वाले गुरु (Heavy) कहे जाते है।

उदाहरण के लिए :

त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ||


इस श्लोक को उपरोक्त वर्णन के आधार पर विभाजित किया गया है

(1) त्व मे व मा ता च पि ता त्व मे व
L H L H H L L H L H L

(2) त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव

त्व मे व बन् धुश् च स खा त्व मे व
L H L H H L L H L H L


बन्धु को विभक्त करते समय आधे न (न्) को ब के साथ रखा गया है (बन्) क्योंकि तीसरा नियम कहता है "किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए" तथा बन् को साथ रखने पर दूसरा नियम भी सत्य होता है चूँकि बन् लाइन के आरंभ में नही है इसलिए व्यंजन से प्रारंभ होना अनिवार्य है | और प्रथम नियम भी बन् में सत्य हो रहा है क्योकि ब में अ(स्वर) है |

धुश् में भी प्रथम तथा तृतीय नियम सत्य होते है |

आधे वर्ण में अंत होने वाले वर्ण जैसे : बन् धुश् गुरु की श्रेणी में आएंगे |

लघु और गुरु को क्रमश: "|" और "S" (ये अंग्रेजी वर्णमाला का S नही है) से भी प्रदर्शित किया जाता है |

इस प्रकार उपरोक्त चार नियमो द्वारा किसी भी श्लोक आदि को द्विआधारीय रचना में लिखा जा सकता है |
ये तो हुई बात लघु और गुरु की |

अब बात आती है इन्हें उचित स्थान देने की ।

यदि हमारे पास 4 वर्ण है |तो इसके द्वारा हम 16 प्रकार के संयोजन (combinations) बना सकते है
जिसमे प्रत्येक का स्थान महत्व रखता है |

आगे पिंगल ने उसी के सन्दर्भ में एक मैट्रिक्स दी जिसका नाम था : प्रस्तार |
प्रस्तार मैट्रिक्स को बनाने के लिए पिंगल ने मात्र एक ही सूत्र दिया :

एकोत्तरक्रमश: पूर्वप्र्क्ता लासंख्या - [छन्दःशास्त्र 8.23]

इस एक ही सूत्र से मैट्रिक्स की रचना को जानना अत्यंत कठिन था | कदाचित पिंगल के अतिरित 8 वी सदी तक इसके सन्दर्भ को कोई समझ नही पाया |

परन्तु 8 वी सदी में केदारभट्ट ने पिंगल के छन्दःशास्त्र पर कार्य किया और इस पहेली को सुलाझा लिया इनके ग्रन्थ का नाम वृतरत्नाकर है इसके पश्चात त्रिविक्रम द्वारा १२वीं शती में रचित तात्पर्यटीका तथा हलायुध द्वारा १३वीं शती में रचित मृतसंजीवनी में उपरोक्त सूत्र को और भी बारीकी से प्रस्तुत किया गया। ये सभी छन्द:शास्त्र के ही भाष्य है |

वृतरत्नाकर में केदार द्वारा वर्णित थ्योरी का अध्यन कर IIT कानपूर के प्रध्यापक हरिश्चन्द्र वर्मा जी ने एक फ्लो चार्ट तैयार किया (कमेंट का चित्र देखे )

प्रथम चरण: हमें सारे B (big/गुरु) लिखने है जितने हमारे वर्ण है | यदि वर्ण तिन है तो संयोजन 3*3=9 बनेंगे यदि 4 है तो 16 बनेंगे|
हम 4 वर्ण लेकर चलते है संयोजन बनेंगे 16.
4 वर्ण के लिए 4 बार B लिखना है :

BBBB
द्वितीय चरण:

हमें left to right चलना है लेफ्ट में प्रथम B है तो दुसरे चरण में उसके निचे लिखे S और बाकि सारे वर्ण ज्यों के त्यों लिख दें|
SBBB
तृतीय चरण :

अब उपरोक्त प्रथम है S तो अगली पंक्ति में उसके निचे B लिखें जब तक B न मिल जाये | और B मिलते ही S लिखें और बचे हुए वर्ण ज्यों के त्यों लिख दें|

इस प्रकार उपरोक्त फ्लो चार्ट के अनुसार चलने पर हमें 16 संयोजनों की टेबल प्राप्त होगी |

BBSB
SBSB
BSSB
SSSB
BBBS
SBBS
BSBS
SSBS
BBSS
SBSS
BSSS
SSSS

अंत में सारे S प्राप्त होने पर रुक जाएँ|
उपरोक्त टेबल में B गुरु के लिए, S लघु के लिए है|

कंप्यूटर जगत 0 1 पर कार्य नही करता अपितु सर्किट के किसी कॉम्पोनेन्ट/भाग में विधुत धारा है अथवा नही पर कार्य करता है | आधुनिक विज्ञान में धारा होने को 1 द्वारा तथा नही होने को 0 द्वारा प्रदर्शित किया जाता है | 0 1 केवल हमारे समझने के लिए है कंप्यूटर के लिए नही| इसलिए 0 1 के स्थान पर यदि Low High, Empty Full , Small Big, No Yes अथवा लघु और गुरु कहा जाये तो कोई फर्क पड़ने वाला नही|

कंप्यूटर जगत के जानकर उपरोक्त वर्णन को अच्छे से समझ गये होंगे|

इसके अतिरिक्त पिंगल ने द्विआधारीय संख्याओं को दशमलव (Binary to Decimal), दशमलव से द्विआधारीय (Decimal to Binary) में परिवर्तित करने, मेरु प्रस्तार (पास्कल त्रिभुज), और द्विपद प्रमेय (Binomial Theorem) हेतु कई सूत्र दिए जिसे केदार, हलयुध आदि ने अपने ग्रंथों में पुनः विस्तृत रूप से लिखा|

बिलकुल यही खोज Gottfried Wilhelm Leibniz ने पिंगल से लगभग 1900 वर्ष बाद की | और सारा विश्व कूद कूद कर इन महोदय के नाम की माला जपने लगा, सबको पता था की ये खोज पिंगल ने की है, (आप चाहे तो विकिपीडिया देख सकते है) पर महर्षि पिंगल को कभी उनका उचित स्थान नहीं मिल सका

मैं कुछ लिंक दे रहा हू इन्हें ओपन करे व ध्यानपूर्वक पढ़ें

1. http://www.bsgp.org/Know_India_Culture/Great_people/The_Sage/Pingla_Rishi

2. http://www.allempires.com/forum/forum_posts.asp?TID=17915

3. http://en.wikipedia.org/wiki/Binary_number#History

4. http://www.math.canterbury.ac.nz/~r.sainudiin/lmse/pingalas-fountain/

और अधिक जानना चाहते हैं तो इस वीडियो को देंखे..

https://www.youtube.com/watch?v=pscROPdITjA ..

अगर समय का अभाव है और पूरा वीडियो नहीं देखना चाहते हैं तो 34:40 तक फॉरवर्ड करे और फिर देंखे

गुरुत्वाकर्षण (Gravity) के खोजकर्ता - भास्कराचार्य द्वितीय (Bhaskar II)

आधी सदी से चली आ रही मैकाले शिक्षा पद्धति के परिणामस्वरूप जब भी गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की बात की जाती है, तब हमेशा न्यूटन वाले सेब का नाम लेकर हमेशा की तरह महान सनातनी वैज्ञानिक इतिहास को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता है.

न्यूटन से ५०० वर्ष पूर्व ही महान भारतीय गणितज्ञ, ज्योतिषी एवं खगोलविद्, भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण की खोज व संपूर्ण सैद्धांतिक अवधारणा प्रस्तुत कर दी थी.

भास्कराचार्यजी ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि - "पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आकाशीय पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है"

इनका जन्म १११४ ई. में, दक्षिण भारत के एक गाँव में हुआ था। उन्होंने ज्योतिष, खगोल व गणित का ज्ञान अपने मनीषी पिता से प्राप्त किया था.

भास्कराचार्य की सबसे अप्रतिम रचना ‘सिद्धांतशिरोमणि’ नामक ग्रन्थ है एवं इस ग्रन्थ में सबसे अधिक प्रसिद्ध तथा चर्चित भाग है "लीलावती".

लीलावती, भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। अपनी पुत्री के नाम पर ही उन्होंने इस ग्रन्थ का नाम लीलावती रखा। यह पुस्तक पिता-पुत्री संवाद के रूप में लिखी गयी है। लीलावती में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है। इस ग्रन्थ में पाटीगणित (अंकगणित), बीजगणित और ज्यामिति के प्रश्न एवं उनके उत्तर हैं। प्रश्न प्रायः लीलावती को ही सम्बोधित करके पूछे गये हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात लीलावती में एक अध्याय है जिसका नाम है कुट्टक. आज के Diophantine Equation इसी कुट्टक अध्याय पर आधारित हैं. या कह सकते है की पूरे के पूरे समीकरण इसी अध्याय से कॉपी किये गए है.

वास्तव में ‘सिद्धांतशिरोमणि’ चार भागों से मिलकर बना हुआ विशाल ग्रन्थ है. जो क्रमशः

(1) लीलावती

(2) बीजगणित

(3) गोलाध्याय और

(4) ग्रहगणिताध्याय से मिलकर बना है. (प्रथम दो स्वतंत्र ग्रन्थ है तथा अंतिम दो सिद्धांतशिरोमणि के नाम से जाने जाते है)

अब मुख्य कथन पर आते है.

भास्कराचार्य ने तीसरे भाग गोलाध्याय में लिखा है -

"मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो,
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत्,
खस्थं,गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।" - सिद्धांतशिरोमणि (गोलाध्याय - भुवनकोश)

अर्थात् - पृथ्वी में आकर्षण (गुरुत्वाकर्षण) शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।

यहाँ पर भास्कराचार्य ने सापेक्षता के सिद्धांत की भी एक झलक दिखा दी है जिसका वर्णन आइंस्टीन ने २० वीं सदी में जाकर किया :

यह कहा जाये की विज्ञान के सारे आधारभूत आविष्कार भारत भूमि पर हमारे ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

भास्कराचार्य ने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। वे उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें "मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ" कहा जाता है.

वे एक मौलिक विचारक भी थे। वह प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होनें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि - "कोई संख्या जब शून्य से विभक्त की जाती है तो अनंत हो जाती है। किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अंनत होता है।"

इसके अलावा भास्कराचार्य ने वासनाभाष्य (सिद्धान्तशिरोमणि का भाष्य) तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल नामक दो ज्योतिष ग्रंथ लिखे हैं। इनके सिद्धांत शिरोमणि से ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व जाना जा सकता है।

सर्वप्रथम इन्होंने ही अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का स्पष्ट विवेचन आदि है।

भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का भी ज्ञान था। इनके अतिरिक्त इन्होंने किसी फलन के अवकल को "तात्कालिक गति" का नाम दिया और सिद्ध किया कि -

d (ज्या q) = (कोटिज्या q) . dq

जैसे की पहले ही लिख चुका हूँ की न्यूटन के जन्म के आठ सौ वर्ष पूर्व ही इन्होंने अपने गोलाध्याय में 'माध्यकर्षणतत्व' के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। इनके ग्रंथों की कई टीकाएँ हो चुकी हैं तथा देशी और विदेशी बहुत सी भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं।

इनकी पुस्तक करणकुतूहल में खगोल विज्ञान की गणना है। इसका प्रयोग आज भी पंचाग बनाने में किया जाता है.

  विमान शास्त्र की रचना करने वाले महर्षि भारद्वाज को गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बारे में पता न हो ये हो ही नही सकता क्योंकि किसी भी वस्तु को उड़ाने के लिए पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का विरोध करना अनिवार्य है। जब तक कोई व्यक्ति गुरुत्वाकर्षण को पूरी तरह नही जान ले उसके लिए विमान शास्त्र जैसे ग्रन्थ का निर्माण करना संभव ही नही | अतएव गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन से हजारों वर्ष पूर्व ही की जा चुकी थी]

रसायन-धातु कर्म विज्ञान के प्रणेता - नागार्जुन . Wizard of Chemistry and Super Metallurgist - Nagarjuna

सनातन कालीन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में रसायन एवं धातु कर्म विज्ञान के सन्दर्भ में नागार्जुन का नाम अमर है... ये महान गुणों के धनी रसायनविज्ञ इतने प्रतिभाशाली थे की इन्होने विभिन्न धातुओं को सोने (Gold) में बदलने की विधि का वर्णन किया था. एवं इसका सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया था.

इनकी जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म द्वितीय शताब्दी में हुआ था। अन्य मतानुसार नागार्जुन का जन्म सन् ९३१ में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था,

रसायन शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व परस्पर परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि में आवश्यक औषधियों का निर्माण इसके द्वारा होता है।

नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध हैं। रसायनशास्त्री व धातुकर्मी होने के साथ साथ इन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें 'कक्षपुटतंत्र', 'आरोग्य मंजरी', 'योग सार' और 'योगाष्टक' हैं।

रस रत्नाकर ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-

(१) महारस
(२) उपरस
(३) सामान्यरस
(४) रत्न
(५) धातु
(६) विष
(७) क्षार
(८) अम्ल
(९) लवण
(१०) भस्म।

महारस इतने है -

(१) अभ्रं
(२) वैक्रान्त
(३) भाषिक
(४) विमला
(५) शिलाजतु
(६) सास्यक
(७)चपला
(८) रसक

उपरस :-

(१) गंधक
(२) गैरिक
(३) काशिस
(४) सुवरि
(५) लालक
(६) मन: शिला
(७) अंजन
(८) कंकुष्ठ

सामान्य रस-

(१) कोयिला
(२) गौरीपाषाण
(३) नवसार
(४) वराटक
(५) अग्निजार
(६) लाजवर्त
(७) गिरि सिंदूर
(८) हिंगुल
(९) मुर्दाड श्रंगकम्‌

इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।

रस रत्नाकर अध्याय ९ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-

(१) दोल यंत्र
(२) स्वेदनी यंत्र
(३) पाटन यंत्र
(४) अधस्पदन यंत्र
(५) ढेकी यंत्र
(६) बालुक यंत्र
(७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र
(८) विद्याधर यंत्र
(९) धूप यंत्र
(१०) कोष्ठि यंत्र
(११) कच्छप यंत्र
(१२) डमरू यंत्र।

प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।

पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।

पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।

नागार्जुन कहते हैं-

क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥

सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥ - (रसरत्नाकार-३-७-८९-१०)

अर्थात्‌ - धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।

नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि, रजत के धातुकर्म का वर्णन तथा वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।

इसके अतिरिक्त रसरत्नाकर में रस (पारे के योगिक) बनाने के प्रयोग दिए गये हैं। इसमें देश में धातुकर्म और कीमियागरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था। इस पुस्तक में चांदी, सोना, टिन और तांबे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए हैं।

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं और वनस्पति तत्वों और अम्ल और खनिजों का भी इस्तेमाल किया। हीरे, धातु और मोती घोलने के लिए उन्होंने वनस्पति से बने तेजाबों का सुझाव दिया। उसमें खट्टा दलिया, पौधे और फलों के रस से तेजाब (Acid) बनाने का वर्णन है।

नागार्जुन ने सुश्रुत संहिता के पूरक के रूप में उत्तर तन्त्र नामक पुस्तक भी लिखी। इसमें दवाइयां बनाने के तरीके दिये गये हैं। आयुर्वेद की एक पुस्तक `आरोग्यमजरी' भी लिखी।

तो देखा आपने सनातनी भारत में अन्य विज्ञानों के साथ साथ रसायन विज्ञान भी अपनी उत्कृष्ट अवस्था में था.

खगोलशास्त्र के पितृपुरुष - आर्यभट्ट . Patriarch of Astronomy - Aryabhatta

"जब जीरो दिया मेरे भारत ने, दुनिया को गिनती आई" फिल्म पूरब और पश्चिम के इस गीत के बोल आपने भी सुने होंगे... पर आर्यभट्ट ने भारत को सिर्फ जीरो ही नहीं... विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान का अथाह सागर दिया था... आर्यभट्ट ही Astronomy (खगोलशास्त्र) के पितृपुरुष थे... उन्ही के ज्ञान को विदेशियों और मलेच्छों ने अपना बताकर खूब वाहवाही बटोरी... पर सत्य छुपाये नहीं छुपता... जिन मलेच्छों ने विश्व को कष्ट, दरिद्रता और और आतंकवाद के सिवा कुछ नहीं दिया... उनसे ज्ञान की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? ये तो उपकार है आर्यावर्त के जिसके परिश्रम को पश्चिमी जगत और मलेच्छ भुना रहे हैं...

आर्यभट्ट के आविष्कारों एवं खोजों की लिस्ट बहुत लम्बी है ... उन्होंने स्थानीय मान प्रणाली, शून्य अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में पाइ (pi) ,क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति, अनिश्चित समीकरण ,बीजगणित ,खगोल विज्ञान ,सौर प्रणाली की गतियां ,ग्रहण ,नक्षत्र अवधियाँ ,सूर्य केंद्रीयता से सम्बंधित कई महान खोजें की... http://www.charchaa.org/2010/history/aaryabhateeya1.html

जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विद्वानों के मध्य विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्माका के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है,

इन्होने आर्यभट्टीय नामक महान ग्रन्थ की रचना की... आर्यभटीय के एक श्‍लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्‍होंने इस पुस्‍तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ''कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।'' भारतीय ज्‍योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्‍वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्‍म 476 में होने की बात कही जाती है।

आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट्ट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।

उन्होंने आर्यभट्टीय में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[5] आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित की। उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय , गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धत किया गया है, और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है. आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं. इसमे निरंतर भिन्न (कॅंटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण(क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग(सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और जीवाओं की एक तालिका (टेबल ऑफ साइंस) शामिल हैं.

ये संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी (गूड) है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। चार अध्याय इस प्रकार है :

1. दशगीतिकापाद:- ब्रह्माण्ड की काल गणनाओ, ग्रहों की गति आदि का समावेश

2. गणितपाद :- खगोलीय अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित, वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन

3. कालक्रियापाद :- समय विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम

4. गोलपाद :- त्रिकोणमितीय समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण की गणना

पश्चिम में 15वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है परन्तु आर्यभट्ट ने 4थी सदी में ही भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-

अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌
विलोमंग यद्वत्‌।
अचलानि भानि तद्वत्‌ सम
पश्चिमगानि लंकायाम्‌॥ -आर्यभट्टीय गोलपाद-९

अर्थात्‌ - नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।

भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥

अर्थात्‌- तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।

भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था |

उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्‌॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)

अर्थात्‌ - जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।

आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।

बुध - आर्यभट्ट का मान 0.375 एयू - वर्तमान मान 0.387 एयू

शुक्र - आर्यभट्ट का मान 0.७२५ एयू - वर्तमान मान 0.723 एयू

मंगल - आर्यभट्ट का मान 1.538 एयू - वर्तमान मान 1.523 एयू

गुरु - आर्यभट्ट का मान 4.16 एयू - वर्तमान मान 4.20 एयू

शनि - आर्यभट्ट का मान 9.41 एयू - वर्तमान मान 9.54 एयू

आर्यभट्ट ने पाइ (Pi) के मान पर विस्तृत कार्य किया, . आर्यभटीय के दूसरे भाग (गणितपाद 10) में, वे लिखते हैं:

चतुराधिकम सतमासअगु अमद्वासास इस्त्तथा
सहस्रं अयुतादवायाविसकमभाष्यसन्नोवृत्तापरी अहा. - गणितपाद १०

अर्थात्‌- "१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें. इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है. "

इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १०० ) × ८ + ६२००० ) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है.

भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'सुवर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालंदा विश्वविद्याल ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।

आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।

उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।

आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी, उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे।

"गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।

आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।

आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।

गणितपद ६ में, आर्यभट्ट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है

त्रिभुजस्य फलाशारिरम
समदलाकोटि भुजर्धसमवर्गः - गणितपाद ६

अर्थात्‌ - एक त्रिकोण के लिए, अर्ध-पक्ष के साथ लम्ब का परिणाम क्षेत्रफ़ल है.

प्राचीन काल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक समाधान ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरुप में होती है, एक विषय जिसे डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है.यहाँ है आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण::

वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है.

अर्थात, बताएं N= 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है.सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे.इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पु. तक पुराने हो सकते हैं. ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट्ट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है.

कुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना, और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था.आज यह कलनविधि, ६२१ इसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट्ट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है. डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है, और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया. यहाँ क्लिक करें - http://www.facebook.com/photo.php?fbid=377194629070237&set=a.338314332958267.1073741828.100003391094649&type=1&theater

आर्यभट्ट को यह ज्ञात था कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है.यह श्रीलंका को संदर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है.

जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है. [अचलानी भानी समांपाशाचिमागानी - गोलापदा .9]

परन्तु अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है: "उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं.

लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक संदर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था.

आर्यभट्ट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की. इस मॉडल में, जो पाया जाता है

पितामहासिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रिह्चक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंदा (धीमा) गृहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) गृहचक्र. पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है : चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि, और नक्षत्र

ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं, और मंगल, बृहस्पति, और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं.खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि गृहचक्र वाला मॉडल प्री-टोलेमिक ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है. आर्यभट्ट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका , सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है.

उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं.मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया.इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७), और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८), और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना.बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट्ट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था. यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतियों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे.

आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है.यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनका गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी.

समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट्ट की गणना के अनुसार पृथ्वी की अवधि (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है. इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है.नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, यह संगणना सबसे सटीक थी.

आर्यभट्ट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी गृहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं.इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट्ट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे गृह सूर्य का चक्कर लगाते हैं.

भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट्ट के कार्य का बड़ा प्रभाव था, और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया.इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था. उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है, और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें संदर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट्ट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है.

साइन(ज्य ), कोसाइन(कोज्या ) के साथ ही , वरसाइन (उक्रमाज्य ) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (ओत्क्रम ज्या ), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया.वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने निर्दिष्ट किया था साइन और वरसाइन(१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक.

वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट्ट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के ग़लत उच्चारण हैं.

आर्यभट्ट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी. आर्यभट्ट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, .इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है. यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी.

भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट्ट, को उनका नाम दिया गया.चंद्र खड्ड आर्यभट्ट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है.खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञानं अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है.

अंतर्स्कूल आर्यभट्ट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है. बैसिलस आर्यभट्ट , इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है.


आर्यभट्ट का प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है -

क. चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)

ख. अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)

(अर्थ-नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।

मैं कुछ लिक दे रहा हूँ इन्हें ओपन करके ध्यानपूर्वक पढ़ें -

१. - http://www.charchaa.org/2010/history/aaryabhateeya1.html

२. - http://titus.uni-frankfurt.de/texte/etcs/ind/aind/klskt/mathemat/aryabhat/aryab.htm

३. - http://www.gongol.com/research/math/aryabhatiya/

४. - http://www-history.mcs.st-andrews.ac.uk/history/Projects/Pearce/Chapters/Ch8_2.html

५. - http://www.new.dli.ernet.in/insa/INSA_1/2000616e_101.pdf

६. - http://people.scs.fsu.edu/~dduke/india8.pdf

सनातनी आर्यावर्त को नमन है