"जब
जीरो दिया मेरे भारत ने, दुनिया को गिनती आई" फिल्म पूरब और पश्चिम के इस
गीत के बोल आपने भी सुने होंगे... पर आर्यभट्ट ने भारत को सिर्फ जीरो ही
नहीं... विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान का अथाह सागर दिया था... आर्यभट्ट ही
Astronomy (खगोलशास्त्र) के पितृपुरुष थे... उन्ही के ज्ञान को विदेशियों
और मलेच्छों ने अपना बताकर खूब वाहवाही
बटोरी... पर सत्य छुपाये नहीं छुपता... जिन मलेच्छों ने विश्व को कष्ट,
दरिद्रता और और आतंकवाद के सिवा कुछ नहीं दिया... उनसे ज्ञान की अपेक्षा
कैसे की जा सकती है? ये तो उपकार है आर्यावर्त के जिसके परिश्रम को पश्चिमी
जगत और मलेच्छ भुना रहे हैं...
आर्यभट्ट के आविष्कारों एवं खोजों की लिस्ट बहुत लम्बी है ... उन्होंने स्थानीय मान प्रणाली, शून्य अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में पाइ (pi) ,क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति, अनिश्चित समीकरण ,बीजगणित ,खगोल विज्ञान ,सौर प्रणाली की गतियां ,ग्रहण ,नक्षत्र अवधियाँ ,सूर्य केंद्रीयता से सम्बंधित कई महान खोजें की... http://www.charchaa.org/ 2010/history/ aaryabhateeya1.html
जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विद्वानों के मध्य विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्माका के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है,
इन्होने आर्यभट्टीय नामक महान ग्रन्थ की रचना की... आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ''कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।'' भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्म 476 में होने की बात कही जाती है।
आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट्ट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
उन्होंने आर्यभट्टीय में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[5] आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित की। उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय , गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धत किया गया है, और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है. आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं. इसमे निरंतर भिन्न (कॅंटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण(क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग(सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और जीवाओं की एक तालिका (टेबल ऑफ साइंस) शामिल हैं.
ये संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी (गूड) है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। चार अध्याय इस प्रकार है :
1. दशगीतिकापाद:- ब्रह्माण्ड की काल गणनाओ, ग्रहों की गति आदि का समावेश
2. गणितपाद :- खगोलीय अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित, वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन
3. कालक्रियापाद :- समय विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम
4. गोलपाद :- त्रिकोणमितीय समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण की गणना
पश्चिम में 15वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है परन्तु आर्यभट्ट ने 4थी सदी में ही भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्
विलोमंग यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् सम
पश्चिमगानि लंकायाम्॥ -आर्यभट्टीय गोलपाद-९
अर्थात् - नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।
भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्॥
अर्थात्- तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।
भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था |
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)
अर्थात् - जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
बुध - आर्यभट्ट का मान 0.375 एयू - वर्तमान मान 0.387 एयू
शुक्र - आर्यभट्ट का मान 0.७२५ एयू - वर्तमान मान 0.723 एयू
मंगल - आर्यभट्ट का मान 1.538 एयू - वर्तमान मान 1.523 एयू
गुरु - आर्यभट्ट का मान 4.16 एयू - वर्तमान मान 4.20 एयू
शनि - आर्यभट्ट का मान 9.41 एयू - वर्तमान मान 9.54 एयू
आर्यभट्ट ने पाइ (Pi) के मान पर विस्तृत कार्य किया, . आर्यभटीय के दूसरे भाग (गणितपाद 10) में, वे लिखते हैं:
चतुराधिकम सतमासअगु अमद्वासास इस्त्तथा
सहस्रं अयुतादवायाविसकमभाष्यसन्नोव ृत्तापरी अहा. - गणितपाद १०
अर्थात्- "१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें. इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है. "
इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १०० ) × ८ + ६२००० ) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है.
भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'सुवर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालंदा विश्वविद्याल ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।
आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।
उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी, उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे।
"गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।
आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।
आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।
गणितपद ६ में, आर्यभट्ट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है
त्रिभुजस्य फलाशारिरम
समदलाकोटि भुजर्धसमवर्गः - गणितपाद ६
अर्थात् - एक त्रिकोण के लिए, अर्ध-पक्ष के साथ लम्ब का परिणाम क्षेत्रफ़ल है.
प्राचीन काल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक समाधान ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरुप में होती है, एक विषय जिसे डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है.यहाँ है आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण::
वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है.
अर्थात, बताएं N= 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है.सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे.इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पु. तक पुराने हो सकते हैं. ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट्ट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है.
कुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना, और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था.आज यह कलनविधि, ६२१ इसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट्ट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है. डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है, और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया. यहाँ क्लिक करें - http://www.facebook.com/ photo.php?fbid=377194629070 237&set=a.338314332958267. 1073741828.100003391094649 &type=1&theater
आर्यभट्ट को यह ज्ञात था कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है.यह श्रीलंका को संदर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है.
जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है. [अचलानी भानी समांपाशाचिमागानी - गोलापदा .9]
परन्तु अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है: "उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं.
लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक संदर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था.
आर्यभट्ट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की. इस मॉडल में, जो पाया जाता है
पितामहासिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रिह्चक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंदा (धीमा) गृहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) गृहचक्र. पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है : चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि, और नक्षत्र
ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं, और मंगल, बृहस्पति, और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं.खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि गृहचक्र वाला मॉडल प्री-टोलेमिक ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है. आर्यभट्ट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका , सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है.
उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं.मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया.इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७), और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८), और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना.बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट्ट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था. यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतियों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे.
आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है.यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनका गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी.
समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट्ट की गणना के अनुसार पृथ्वी की अवधि (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है. इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है.नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, यह संगणना सबसे सटीक थी.
आर्यभट्ट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी गृहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं.इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट्ट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे गृह सूर्य का चक्कर लगाते हैं.
भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट्ट के कार्य का बड़ा प्रभाव था, और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया.इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था. उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है, और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें संदर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट्ट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है.
साइन(ज्य ), कोसाइन(कोज्या ) के साथ ही , वरसाइन (उक्रमाज्य ) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (ओत्क्रम ज्या ), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया.वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने निर्दिष्ट किया था साइन और वरसाइन(१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक.
वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट्ट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के ग़लत उच्चारण हैं.
आर्यभट्ट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी. आर्यभट्ट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, .इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है. यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी.
भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट्ट, को उनका नाम दिया गया.चंद्र खड्ड आर्यभट्ट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है.खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञानं अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है.
अंतर्स्कूल आर्यभट्ट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है. बैसिलस आर्यभट्ट , इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है.
आर्यभट्ट का प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है -
क. चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)
ख. अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)
(अर्थ-नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।
मैं कुछ लिक दे रहा हूँ इन्हें ओपन करके ध्यानपूर्वक पढ़ें -
१. - http://www.charchaa.org/ 2010/history/ aaryabhateeya1.html
२. - http:// titus.uni-frankfurt.de/ texte/etcs/ind/aind/klskt/ mathemat/aryabhat/aryab.htm
३. - http://www.gongol.com/ research/math/aryabhatiya/
४. - http:// www-history.mcs.st-andrews. ac.uk/history/Projects/ Pearce/Chapters/Ch8_2.html
५. - http:// www.new.dli.ernet.in/insa/ INSA_1/2000616e_101.pdf
६. - http://people.scs.fsu.edu/ ~dduke/india8.pdf
सनातनी आर्यावर्त को नमन है
आर्यभट्ट के आविष्कारों एवं खोजों की लिस्ट बहुत लम्बी है ... उन्होंने स्थानीय मान प्रणाली, शून्य अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में पाइ (pi) ,क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति, अनिश्चित समीकरण ,बीजगणित ,खगोल विज्ञान ,सौर प्रणाली की गतियां ,ग्रहण ,नक्षत्र अवधियाँ ,सूर्य केंद्रीयता से सम्बंधित कई महान खोजें की... http://www.charchaa.org/
जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विद्वानों के मध्य विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्माका के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है,
इन्होने आर्यभट्टीय नामक महान ग्रन्थ की रचना की... आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ''कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।'' भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्म 476 में होने की बात कही जाती है।
आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट्ट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
उन्होंने आर्यभट्टीय में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[5] आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित की। उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय , गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धत किया गया है, और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है. आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं. इसमे निरंतर भिन्न (कॅंटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण(क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग(सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और जीवाओं की एक तालिका (टेबल ऑफ साइंस) शामिल हैं.
ये संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी (गूड) है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। चार अध्याय इस प्रकार है :
1. दशगीतिकापाद:- ब्रह्माण्ड की काल गणनाओ, ग्रहों की गति आदि का समावेश
2. गणितपाद :- खगोलीय अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित, वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन
3. कालक्रियापाद :- समय विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम
4. गोलपाद :- त्रिकोणमितीय समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण की गणना
पश्चिम में 15वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है परन्तु आर्यभट्ट ने 4थी सदी में ही भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्
विलोमंग यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् सम
पश्चिमगानि लंकायाम्॥ -आर्यभट्टीय गोलपाद-९
अर्थात् - नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।
भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्॥
अर्थात्- तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।
भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था |
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)
अर्थात् - जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
बुध - आर्यभट्ट का मान 0.375 एयू - वर्तमान मान 0.387 एयू
शुक्र - आर्यभट्ट का मान 0.७२५ एयू - वर्तमान मान 0.723 एयू
मंगल - आर्यभट्ट का मान 1.538 एयू - वर्तमान मान 1.523 एयू
गुरु - आर्यभट्ट का मान 4.16 एयू - वर्तमान मान 4.20 एयू
शनि - आर्यभट्ट का मान 9.41 एयू - वर्तमान मान 9.54 एयू
आर्यभट्ट ने पाइ (Pi) के मान पर विस्तृत कार्य किया, . आर्यभटीय के दूसरे भाग (गणितपाद 10) में, वे लिखते हैं:
चतुराधिकम सतमासअगु अमद्वासास इस्त्तथा
सहस्रं अयुतादवायाविसकमभाष्यसन्नोव
अर्थात्- "१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें. इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है. "
इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १०० ) × ८ + ६२००० ) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है.
भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'सुवर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालंदा विश्वविद्याल ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।
आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।
उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी, उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे।
"गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।
आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।
आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।
गणितपद ६ में, आर्यभट्ट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है
त्रिभुजस्य फलाशारिरम
समदलाकोटि भुजर्धसमवर्गः - गणितपाद ६
अर्थात् - एक त्रिकोण के लिए, अर्ध-पक्ष के साथ लम्ब का परिणाम क्षेत्रफ़ल है.
प्राचीन काल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक समाधान ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरुप में होती है, एक विषय जिसे डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है.यहाँ है आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण::
वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है.
अर्थात, बताएं N= 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है.सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे.इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पु. तक पुराने हो सकते हैं. ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट्ट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है.
कुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना, और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था.आज यह कलनविधि, ६२१ इसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट्ट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है. डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है, और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया. यहाँ क्लिक करें - http://www.facebook.com/
आर्यभट्ट को यह ज्ञात था कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है.यह श्रीलंका को संदर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है.
जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है. [अचलानी भानी समांपाशाचिमागानी - गोलापदा .9]
परन्तु अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है: "उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं.
लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक संदर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था.
आर्यभट्ट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की. इस मॉडल में, जो पाया जाता है
पितामहासिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रिह्चक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंदा (धीमा) गृहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) गृहचक्र. पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है : चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि, और नक्षत्र
ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं, और मंगल, बृहस्पति, और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं.खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि गृहचक्र वाला मॉडल प्री-टोलेमिक ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है. आर्यभट्ट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका , सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है.
उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं.मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया.इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७), और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८), और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना.बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट्ट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था. यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतियों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे.
आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है.यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनका गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी.
समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट्ट की गणना के अनुसार पृथ्वी की अवधि (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है. इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है.नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, यह संगणना सबसे सटीक थी.
आर्यभट्ट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी गृहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं.इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट्ट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे गृह सूर्य का चक्कर लगाते हैं.
भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट्ट के कार्य का बड़ा प्रभाव था, और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया.इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था. उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है, और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें संदर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट्ट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है.
साइन(ज्य ), कोसाइन(कोज्या ) के साथ ही , वरसाइन (उक्रमाज्य ) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (ओत्क्रम ज्या ), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया.वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने निर्दिष्ट किया था साइन और वरसाइन(१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक.
वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट्ट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के ग़लत उच्चारण हैं.
आर्यभट्ट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी. आर्यभट्ट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, .इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है. यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी.
भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट्ट, को उनका नाम दिया गया.चंद्र खड्ड आर्यभट्ट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है.खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञानं अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है.
अंतर्स्कूल आर्यभट्ट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है. बैसिलस आर्यभट्ट , इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है.
आर्यभट्ट का प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है -
क. चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)
ख. अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)
(अर्थ-नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।
मैं कुछ लिक दे रहा हूँ इन्हें ओपन करके ध्यानपूर्वक पढ़ें -
१. - http://www.charchaa.org/
२. - http://
३. - http://www.gongol.com/
४. - http://
५. - http://
६. - http://people.scs.fsu.edu/
सनातनी आर्यावर्त को नमन है
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