Saturday, 28 September 2013

कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के पिताश्री: महर्षि पाणिनि - Ancient Programming By Maharshi Panini

महर्षि पाणिनि के बारे में बताने पूर्व में आज की कंप्यूटर प्रोग्रामिंग किस प्रकार कार्य करती है इसके बारे में कुछ बताना चाहूँगा

आज की कंप्यूटर प्रोग्रामिंग भाषाएँ जैसे C, C++, Java आदि में प्रोग्रामिंग हाई लेवल लैंग्वेज (high level language) में लिखे जाते है जो अंग्रेजी के सामान ही होती है | इसे कंप्यूटर की गणना सम्बन्धी व्याख्या (theory of computation) जिसमे प्रोग्रामिंग के syntex आदि का वर्णन होता है, के द्वारा लो लेवल लैंग्वेज (low level language) जो विशेष प्रकार का कोड होता है जिसे mnemonic कहा जाता है जैसे जोड़ के लिए ADD, गुना के लिए MUL आदि में परिवर्तित किये जाते है | तथा इस प्रकार प्राप्त कोड को प्रोसेसर द्वारा द्विआधारी भाषा (binary language: 0101) में परिवर्तित कर क्रियान्वित किया जाता है |

इस प्रकार पूरा कंप्यूटर जगत Theory of Computation पर निर्भर करता है |

इसी Computation पर महर्षि पाणिनि (लगभग 500 ई पू) ने एक पूरा ग्रन्थ लिखा था

महर्षि पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बड़े व्याकरण विज्ञानी थे | इनका जन्म उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पिंगल का बड़ा भाई मानते है | इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है।
इनके द्वारा भाषा के सन्दर्भ में किये गये महत्त्व पूर्ण कार्य 19वी सदी में प्रकाश में आने लगे |
19वी सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी Franz Bopp (14 सितम्बर 1791 – 23 अक्टूबर 1867) ने श्री पाणिनि के कार्यो पर गौर फ़रमाया । उन्हें पाणिनि के लिखे हुए ग्रंथों में तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के नए मार्ग मिले |

इसके बाद कई संस्कृत के विदेशी चहेतों ने उनके कार्यो में रूचि दिखाई और गहन अध्ययन किया जैसे: Ferdinand de Saussure (1857-1913), Leonard Bloomfield (1887 – 1949) तथा एक हाल ही के भाषा विज्ञानी Frits Staal (1930 – 2012).

तथा इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए 19वि सदी के एक जर्मन विज्ञानी Friedrich Ludwig Gottlob Frege (8 नवम्बर 1848 – 26 जुलाई 1925 ) ने इस क्षेत्र में कई कार्य किये और इन्हें आधुनिक जगत का प्रथम लॉजिक विज्ञानी कहा जाने लगा |

जबकि इनके जन्म से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही श्री पाणिनि इन सब पर एक पूरा ग्रन्थ लिख चुके थे

अपनी ग्रामर की रचना के दोरान पाणिनि ने Auxiliary Symbols (सहायक प्रतीक) प्रयोग में लिए जिसकी सहायता से कई प्रत्ययों का निर्माण किया और फलस्वरूप ये ग्रामर को और सुद्रढ़ बनाने में सहायक हुए |

इसी तकनीक का प्रयोग आधुनिक विज्ञानी Emil Post (फरवरी 11, 1897 – अप्रैल 21, 1954) ने किया और आज की समस्त computer programming languages की नीव रखी |
Iowa State University, अमेरिका ने पाणिनि के नाम पर एक प्रोग्रामिंग भाषा का निर्माण भी किया है जिसका नाम ही पाणिनि प्रोग्रामिंग लैंग्वेज रखा है: यहाँ देखे - http://www.paninij.org/

एक शताब्दी से भी पहले प्रिसद्ध जर्मन भारतिवद मैक्स मूलर (१८२३-१९००) ने अपने साइंस आफ थाट में कहा -

"मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके । इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि 2,50,000 शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है ।

अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का 800 धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट 121 मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके ।"

The M L B D News letter ( A monthly of indological bibliography) in April 1993, में महर्षि पाणिनि को first softwear man without hardwear घोषित किया है। जिसका मुख्य शीर्षक था " Sanskrit software for future hardware "
जिसमे बताया गया " प्राकृतिक भाषाओं (प्राकृतिक भाषा केवल संस्कृत ही है बाकि सब की सब मानव रचित है ) को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाने के तीन दशक की कोशिश करने के बाद, वैज्ञानिकों को एहसास हुआ कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में भी हम 2600 साल पहले ही पराजित हो चुके है। हालाँकि उस समय इस तथ्य किस प्रकार और कहाँ उपयोग करते थे यह तो नहीं कह सकते, पर आज भी दुनिया भर में कंप्यूटर वैज्ञानिक मानते है कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण सभी कंप्यूटर की समस्याओं को हल करने में सक्षम है।

व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संगृहीत हैं।

NASA के वैज्ञानिक Mr.Rick Briggs.ने अमेरिका में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (artificial intelligence) और पाणिनी व्याकरण के बीच की शृंखला खोज की। प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाना बहुत मुस्किल कार्य था जब तक कि Mr.Rick Briggs. द्वारा संस्कृत के उपयोग की खोज न गयी।
उसके बाद एक प्रोजेक्ट पर कई देशों के साथ करोड़ों डॉलर खर्च किये गये।

महर्षि पाणिनि शिव जी बड़े भक्त थे और उनकी कृपा से उन्हें महेश्वर सूत्र से ज्ञात हुआ जब शिव जी संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि से उन्होंने संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की थी। तथा इन्होने महादेव की कई स्तुतियों की भी रचना की |

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्त्तुकामो सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥ -माहेश्वर सूत्र

पाणिनीय व्याकरण की महत्ता पर विद्वानों के विचार:

"पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है" (लेनिन ग्राड के प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी)।

"पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं" (कोल ब्रुक)।

"संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है... यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है" (सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर)।

"पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा"। (प्रो. मोनियर विलियम्स)

विश्व के पहले शल्य चिकित्सक - आचार्य सुश्रुत || Father of Surgery : Sushruta

सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है

शल्य चिकित्सा (Surgery) के पितामह और 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की। सुश्रुत संहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है।

(सुश्रुत संहिता में सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र कहा है। विश्वामित्र से कौन से विश्वामित्र अभिप्रेत हैं, यह स्पष्ट नहीं। सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। काशीपति दिवोदास का समय ईसा पूर्व की दूसरी या तीसरी शती संभावित है। सुश्रुत के सहपाठी औपधेनव, वैतरणी आदि अनेक छात्र थे। सुश्रुत का नाम नावनीतक में भी आता है। अष्टांगसंग्रह में सुश्रुत का जो मत उद्धृत किया गया है; वह मत सुश्रुत संहिता में नहीं मिलता; इससे अनुमान होता है कि सुश्रुत संहिता के सिवाय दूसरी भी कोई संहिता सुश्रुत के नाम से प्रसिद्ध थी। सुश्रुत के नाम पर आयुर्वेद भी प्रसिद्ध हैं। यह सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम् - सिद्धोपदेशसंग्रह)। सुश्रुत के उत्तरतंत्र को दूसरे का बनाया मानकर कुछ लोग प्रथम भाग को सुश्रुत के नाम से कहते हैं; जो विचारणीय है। वास्तव में सुश्रुत संहिता एक ही व्यक्ति की रचना है।)

सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोडऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। मद्य संज्ञाहरण का कार्य करता था। इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर सरंचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी है.

सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है।

सुश्रुत संहिता दो खण्डों में विभक्त है : पूर्वतंत्र तथा उत्तरतंत्र

पूर्वतंत्र : पूर्वतंत्र के पाँच भाग हैं- सूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, कल्पस्थान तथा चिकित्सास्थान । इसमें १२० अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के प्रथम चार अंगों (शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतंत्र, वाजीकरण) का विस्तृत विवेचन है। (चरकसंहिता और अष्टांगहृदय ग्रंथों में भी १२० अध्याय ही हैं।)

उत्तरतंत्र : इस तंत्र में ६४ अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के शेष चार अंगों (शालाक्य, कौमार्यभृत्य, कायचिकित्सा तथा भूतविद्या) का विस्तृत विवेचन है। इस तंत्र को 'औपद्रविक' भी कहते हैं क्योंकि इसमें शल्यक्रिया से होने वाले 'उपद्रवों' के साथ ही ज्वर, पेचिस, हिचकी, खांसी, कृमिरोग, पाण्डु (पीलिया), कमला आदि का वर्णन है। उत्तरतंत्र का एक भाग 'शालाक्यतंत्र' है जिसमें आँख, कान, नाक एवं सिर के रोगों का वर्णन है।

सुश्रुतसंहिता में आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन है:

(१) छेद्य (छेदन हेतु)
(२) भेद्य (भेदन हेतु)
(३) लेख्य (अलग करने हेतु)
(४) वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए)
(५) ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए)
(६) अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए)
(७) विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए)
(८) सीव्य (घाव सिलने के लिए)

सुश्रुत संहिता में शल्य क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इस महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदसों (), २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। ऊपर जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं-

1. अर्द्धआधार,
2. अतिमुख,
3. अरा,
4. बदिशा
5. दंत शंकु,
6. एषणी,
7. कर-पत्र,
8. कृतारिका,
9. कुथारिका,
10. कुश-पात्र,
11. मण्डलाग्र,
12. मुद्रिका,
13. नख
14. शस्त्र,
15. शरारिमुख,
16. सूचि,
17. त्रिकुर्चकर,
18. उत्पल पत्र,
19. वृध-पत्र,
20. वृहिमुख
तथा
21. वेतस-पत्र

आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने विशेष जोर दिया है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है।

इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थिभंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, सुश्रुतसंहिता में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा नेत्र-रोगों के २६ प्रकार बताए गए हैं।

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

अस्थिभंग, कृत्रिम अंगरोपण, प्लास्टिक सर्जरी, दंतचिकित्सा, नेत्रचिकित्सा, मोतियाबिंद का शस्त्रकर्म, पथरी निकालना, माता का उदर चीरकर बच्चा पैदा करना आदि की विस्तृत विधियाँ सुश्रुतसंहिता में वर्णित हैं।

आप ऊपर चित्र मे देख सकते है की किस प्रकार आचार्य सुश्रुत अपने शिष्यों को शल्यक्रिया का अभ्यास विभिन्न निर्जीव वस्तुओं पर करवाते थे

सुश्रुत सहिंता को हिंदी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -> http://peterffreund.com/Vedic_Literature/sushruta/

सुश्रुत सहिंता को अंग्रेजी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -> http://chestofbooks.com/health/india/Sushruta-Samhita/index.html

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है।

शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है।

‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

आधुनिकतम विधियों का भी उल्लेख इसमें है। कई विधियां तो ऐसी भी हैं जिनके सम्बंध में आज का चिकित्सा शास्त्र भी अनभिज्ञ है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शल्य क्रिया अत्यंत उन्नत अवस्था में थी, जबकि शेष विश्व इस विद्या से बिल्कुल अनभिज्ञ था।

द्विआधारीय गणित के जनक - महर्षि पिंगल | Father of Binary Number System - Pingala

महर्षि पिंगल का जन्म लगभग 400 ईसा पूर्व का माना जाता है । कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पाणिनि का छोटा भाई मानते है | महर्षि पिंगल उस समय के महान लेखकों में एक थे । इन्होने छन्दःशास्त्र की रचना की ।

छन्दःशास्त्र आठ अलग अलग अध्यायों में विभक्त है |

आठवे अध्याय में पिंगल ने छंदों को संक्षेप करने तथा उनके वर्गीकरण के बारे में लिखा । तथा द्विआधारीय रचनाओं को गणितीय रूप में लिखने के बारे में बताया ।तथा इनके छंदों की लम्बाई नापने के लिए वर्णों की लम्बाई या उसे उच्चारित (बोलने) में लगने वाले समय के आधार पर उसे दो भागों में बांटा :- गुरु (बड़े के लिए) तथा लधु (छोटे के लिए) |

इसके लिए सर्व प्रथम एक पद (वाक्य) को वर्णों में विभाजित करना होता है विभाजित करने हेतु निम्न नियम दिए गये है :

1. एक वर्ण में स्वर (Vowel) अवश्य होना चाहिए तथा इसमें अवश्य केवल एक ही स्वर होना चाहिए |

2. एक वर्ण सदैव व्यंजन से प्रारंभ होना चाहिए परन्तु वर्ण स्वर से प्रारंभ हो सकता है केवल यदि वर्ण लाइन के प्रारंभ में हो |

3.किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए ।

4.जो वर्ण छोटे स्वर से अंत होता है (अ इ उ आदि ) उसे लघु तथा बाकि सारे गुरु कहे जाते है अर्थात जिस किसी वर्ण के पीछे कोई मात्रा न हो वो लघु (Light) तथा मात्रा वाले गुरु (Heavy) कहे जाते है।

उदाहरण के लिए :

त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ||


इस श्लोक को उपरोक्त वर्णन के आधार पर विभाजित किया गया है

(1) त्व मे व मा ता च पि ता त्व मे व
L H L H H L L H L H L

(2) त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव

त्व मे व बन् धुश् च स खा त्व मे व
L H L H H L L H L H L


बन्धु को विभक्त करते समय आधे न (न्) को ब के साथ रखा गया है (बन्) क्योंकि तीसरा नियम कहता है "किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए" तथा बन् को साथ रखने पर दूसरा नियम भी सत्य होता है चूँकि बन् लाइन के आरंभ में नही है इसलिए व्यंजन से प्रारंभ होना अनिवार्य है | और प्रथम नियम भी बन् में सत्य हो रहा है क्योकि ब में अ(स्वर) है |

धुश् में भी प्रथम तथा तृतीय नियम सत्य होते है |

आधे वर्ण में अंत होने वाले वर्ण जैसे : बन् धुश् गुरु की श्रेणी में आएंगे |

लघु और गुरु को क्रमश: "|" और "S" (ये अंग्रेजी वर्णमाला का S नही है) से भी प्रदर्शित किया जाता है |

इस प्रकार उपरोक्त चार नियमो द्वारा किसी भी श्लोक आदि को द्विआधारीय रचना में लिखा जा सकता है |
ये तो हुई बात लघु और गुरु की |

अब बात आती है इन्हें उचित स्थान देने की ।

यदि हमारे पास 4 वर्ण है |तो इसके द्वारा हम 16 प्रकार के संयोजन (combinations) बना सकते है
जिसमे प्रत्येक का स्थान महत्व रखता है |

आगे पिंगल ने उसी के सन्दर्भ में एक मैट्रिक्स दी जिसका नाम था : प्रस्तार |
प्रस्तार मैट्रिक्स को बनाने के लिए पिंगल ने मात्र एक ही सूत्र दिया :

एकोत्तरक्रमश: पूर्वप्र्क्ता लासंख्या - [छन्दःशास्त्र 8.23]

इस एक ही सूत्र से मैट्रिक्स की रचना को जानना अत्यंत कठिन था | कदाचित पिंगल के अतिरित 8 वी सदी तक इसके सन्दर्भ को कोई समझ नही पाया |

परन्तु 8 वी सदी में केदारभट्ट ने पिंगल के छन्दःशास्त्र पर कार्य किया और इस पहेली को सुलाझा लिया इनके ग्रन्थ का नाम वृतरत्नाकर है इसके पश्चात त्रिविक्रम द्वारा १२वीं शती में रचित तात्पर्यटीका तथा हलायुध द्वारा १३वीं शती में रचित मृतसंजीवनी में उपरोक्त सूत्र को और भी बारीकी से प्रस्तुत किया गया। ये सभी छन्द:शास्त्र के ही भाष्य है |

वृतरत्नाकर में केदार द्वारा वर्णित थ्योरी का अध्यन कर IIT कानपूर के प्रध्यापक हरिश्चन्द्र वर्मा जी ने एक फ्लो चार्ट तैयार किया (कमेंट का चित्र देखे )

प्रथम चरण: हमें सारे B (big/गुरु) लिखने है जितने हमारे वर्ण है | यदि वर्ण तिन है तो संयोजन 3*3=9 बनेंगे यदि 4 है तो 16 बनेंगे|
हम 4 वर्ण लेकर चलते है संयोजन बनेंगे 16.
4 वर्ण के लिए 4 बार B लिखना है :

BBBB
द्वितीय चरण:

हमें left to right चलना है लेफ्ट में प्रथम B है तो दुसरे चरण में उसके निचे लिखे S और बाकि सारे वर्ण ज्यों के त्यों लिख दें|
SBBB
तृतीय चरण :

अब उपरोक्त प्रथम है S तो अगली पंक्ति में उसके निचे B लिखें जब तक B न मिल जाये | और B मिलते ही S लिखें और बचे हुए वर्ण ज्यों के त्यों लिख दें|

इस प्रकार उपरोक्त फ्लो चार्ट के अनुसार चलने पर हमें 16 संयोजनों की टेबल प्राप्त होगी |

BBSB
SBSB
BSSB
SSSB
BBBS
SBBS
BSBS
SSBS
BBSS
SBSS
BSSS
SSSS

अंत में सारे S प्राप्त होने पर रुक जाएँ|
उपरोक्त टेबल में B गुरु के लिए, S लघु के लिए है|

कंप्यूटर जगत 0 1 पर कार्य नही करता अपितु सर्किट के किसी कॉम्पोनेन्ट/भाग में विधुत धारा है अथवा नही पर कार्य करता है | आधुनिक विज्ञान में धारा होने को 1 द्वारा तथा नही होने को 0 द्वारा प्रदर्शित किया जाता है | 0 1 केवल हमारे समझने के लिए है कंप्यूटर के लिए नही| इसलिए 0 1 के स्थान पर यदि Low High, Empty Full , Small Big, No Yes अथवा लघु और गुरु कहा जाये तो कोई फर्क पड़ने वाला नही|

कंप्यूटर जगत के जानकर उपरोक्त वर्णन को अच्छे से समझ गये होंगे|

इसके अतिरिक्त पिंगल ने द्विआधारीय संख्याओं को दशमलव (Binary to Decimal), दशमलव से द्विआधारीय (Decimal to Binary) में परिवर्तित करने, मेरु प्रस्तार (पास्कल त्रिभुज), और द्विपद प्रमेय (Binomial Theorem) हेतु कई सूत्र दिए जिसे केदार, हलयुध आदि ने अपने ग्रंथों में पुनः विस्तृत रूप से लिखा|

बिलकुल यही खोज Gottfried Wilhelm Leibniz ने पिंगल से लगभग 1900 वर्ष बाद की | और सारा विश्व कूद कूद कर इन महोदय के नाम की माला जपने लगा, सबको पता था की ये खोज पिंगल ने की है, (आप चाहे तो विकिपीडिया देख सकते है) पर महर्षि पिंगल को कभी उनका उचित स्थान नहीं मिल सका

मैं कुछ लिंक दे रहा हू इन्हें ओपन करे व ध्यानपूर्वक पढ़ें

1. http://www.bsgp.org/Know_India_Culture/Great_people/The_Sage/Pingla_Rishi

2. http://www.allempires.com/forum/forum_posts.asp?TID=17915

3. http://en.wikipedia.org/wiki/Binary_number#History

4. http://www.math.canterbury.ac.nz/~r.sainudiin/lmse/pingalas-fountain/

और अधिक जानना चाहते हैं तो इस वीडियो को देंखे..

https://www.youtube.com/watch?v=pscROPdITjA ..

अगर समय का अभाव है और पूरा वीडियो नहीं देखना चाहते हैं तो 34:40 तक फॉरवर्ड करे और फिर देंखे

गुरुत्वाकर्षण (Gravity) के खोजकर्ता - भास्कराचार्य द्वितीय (Bhaskar II)

आधी सदी से चली आ रही मैकाले शिक्षा पद्धति के परिणामस्वरूप जब भी गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की बात की जाती है, तब हमेशा न्यूटन वाले सेब का नाम लेकर हमेशा की तरह महान सनातनी वैज्ञानिक इतिहास को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता है.

न्यूटन से ५०० वर्ष पूर्व ही महान भारतीय गणितज्ञ, ज्योतिषी एवं खगोलविद्, भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण की खोज व संपूर्ण सैद्धांतिक अवधारणा प्रस्तुत कर दी थी.

भास्कराचार्यजी ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि - "पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आकाशीय पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है"

इनका जन्म १११४ ई. में, दक्षिण भारत के एक गाँव में हुआ था। उन्होंने ज्योतिष, खगोल व गणित का ज्ञान अपने मनीषी पिता से प्राप्त किया था.

भास्कराचार्य की सबसे अप्रतिम रचना ‘सिद्धांतशिरोमणि’ नामक ग्रन्थ है एवं इस ग्रन्थ में सबसे अधिक प्रसिद्ध तथा चर्चित भाग है "लीलावती".

लीलावती, भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। अपनी पुत्री के नाम पर ही उन्होंने इस ग्रन्थ का नाम लीलावती रखा। यह पुस्तक पिता-पुत्री संवाद के रूप में लिखी गयी है। लीलावती में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है। इस ग्रन्थ में पाटीगणित (अंकगणित), बीजगणित और ज्यामिति के प्रश्न एवं उनके उत्तर हैं। प्रश्न प्रायः लीलावती को ही सम्बोधित करके पूछे गये हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात लीलावती में एक अध्याय है जिसका नाम है कुट्टक. आज के Diophantine Equation इसी कुट्टक अध्याय पर आधारित हैं. या कह सकते है की पूरे के पूरे समीकरण इसी अध्याय से कॉपी किये गए है.

वास्तव में ‘सिद्धांतशिरोमणि’ चार भागों से मिलकर बना हुआ विशाल ग्रन्थ है. जो क्रमशः

(1) लीलावती

(2) बीजगणित

(3) गोलाध्याय और

(4) ग्रहगणिताध्याय से मिलकर बना है. (प्रथम दो स्वतंत्र ग्रन्थ है तथा अंतिम दो सिद्धांतशिरोमणि के नाम से जाने जाते है)

अब मुख्य कथन पर आते है.

भास्कराचार्य ने तीसरे भाग गोलाध्याय में लिखा है -

"मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो,
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत्,
खस्थं,गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।" - सिद्धांतशिरोमणि (गोलाध्याय - भुवनकोश)

अर्थात् - पृथ्वी में आकर्षण (गुरुत्वाकर्षण) शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।

यहाँ पर भास्कराचार्य ने सापेक्षता के सिद्धांत की भी एक झलक दिखा दी है जिसका वर्णन आइंस्टीन ने २० वीं सदी में जाकर किया :

यह कहा जाये की विज्ञान के सारे आधारभूत आविष्कार भारत भूमि पर हमारे ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

भास्कराचार्य ने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। वे उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें "मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ" कहा जाता है.

वे एक मौलिक विचारक भी थे। वह प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होनें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि - "कोई संख्या जब शून्य से विभक्त की जाती है तो अनंत हो जाती है। किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अंनत होता है।"

इसके अलावा भास्कराचार्य ने वासनाभाष्य (सिद्धान्तशिरोमणि का भाष्य) तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल नामक दो ज्योतिष ग्रंथ लिखे हैं। इनके सिद्धांत शिरोमणि से ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व जाना जा सकता है।

सर्वप्रथम इन्होंने ही अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का स्पष्ट विवेचन आदि है।

भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का भी ज्ञान था। इनके अतिरिक्त इन्होंने किसी फलन के अवकल को "तात्कालिक गति" का नाम दिया और सिद्ध किया कि -

d (ज्या q) = (कोटिज्या q) . dq

जैसे की पहले ही लिख चुका हूँ की न्यूटन के जन्म के आठ सौ वर्ष पूर्व ही इन्होंने अपने गोलाध्याय में 'माध्यकर्षणतत्व' के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। इनके ग्रंथों की कई टीकाएँ हो चुकी हैं तथा देशी और विदेशी बहुत सी भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं।

इनकी पुस्तक करणकुतूहल में खगोल विज्ञान की गणना है। इसका प्रयोग आज भी पंचाग बनाने में किया जाता है.

  विमान शास्त्र की रचना करने वाले महर्षि भारद्वाज को गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बारे में पता न हो ये हो ही नही सकता क्योंकि किसी भी वस्तु को उड़ाने के लिए पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का विरोध करना अनिवार्य है। जब तक कोई व्यक्ति गुरुत्वाकर्षण को पूरी तरह नही जान ले उसके लिए विमान शास्त्र जैसे ग्रन्थ का निर्माण करना संभव ही नही | अतएव गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन से हजारों वर्ष पूर्व ही की जा चुकी थी]

रसायन-धातु कर्म विज्ञान के प्रणेता - नागार्जुन . Wizard of Chemistry and Super Metallurgist - Nagarjuna

सनातन कालीन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में रसायन एवं धातु कर्म विज्ञान के सन्दर्भ में नागार्जुन का नाम अमर है... ये महान गुणों के धनी रसायनविज्ञ इतने प्रतिभाशाली थे की इन्होने विभिन्न धातुओं को सोने (Gold) में बदलने की विधि का वर्णन किया था. एवं इसका सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया था.

इनकी जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म द्वितीय शताब्दी में हुआ था। अन्य मतानुसार नागार्जुन का जन्म सन् ९३१ में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था,

रसायन शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व परस्पर परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि में आवश्यक औषधियों का निर्माण इसके द्वारा होता है।

नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध हैं। रसायनशास्त्री व धातुकर्मी होने के साथ साथ इन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें 'कक्षपुटतंत्र', 'आरोग्य मंजरी', 'योग सार' और 'योगाष्टक' हैं।

रस रत्नाकर ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-

(१) महारस
(२) उपरस
(३) सामान्यरस
(४) रत्न
(५) धातु
(६) विष
(७) क्षार
(८) अम्ल
(९) लवण
(१०) भस्म।

महारस इतने है -

(१) अभ्रं
(२) वैक्रान्त
(३) भाषिक
(४) विमला
(५) शिलाजतु
(६) सास्यक
(७)चपला
(८) रसक

उपरस :-

(१) गंधक
(२) गैरिक
(३) काशिस
(४) सुवरि
(५) लालक
(६) मन: शिला
(७) अंजन
(८) कंकुष्ठ

सामान्य रस-

(१) कोयिला
(२) गौरीपाषाण
(३) नवसार
(४) वराटक
(५) अग्निजार
(६) लाजवर्त
(७) गिरि सिंदूर
(८) हिंगुल
(९) मुर्दाड श्रंगकम्‌

इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।

रस रत्नाकर अध्याय ९ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-

(१) दोल यंत्र
(२) स्वेदनी यंत्र
(३) पाटन यंत्र
(४) अधस्पदन यंत्र
(५) ढेकी यंत्र
(६) बालुक यंत्र
(७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र
(८) विद्याधर यंत्र
(९) धूप यंत्र
(१०) कोष्ठि यंत्र
(११) कच्छप यंत्र
(१२) डमरू यंत्र।

प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।

पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।

पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।

नागार्जुन कहते हैं-

क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥

सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥ - (रसरत्नाकार-३-७-८९-१०)

अर्थात्‌ - धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।

नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि, रजत के धातुकर्म का वर्णन तथा वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।

इसके अतिरिक्त रसरत्नाकर में रस (पारे के योगिक) बनाने के प्रयोग दिए गये हैं। इसमें देश में धातुकर्म और कीमियागरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था। इस पुस्तक में चांदी, सोना, टिन और तांबे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए हैं।

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं और वनस्पति तत्वों और अम्ल और खनिजों का भी इस्तेमाल किया। हीरे, धातु और मोती घोलने के लिए उन्होंने वनस्पति से बने तेजाबों का सुझाव दिया। उसमें खट्टा दलिया, पौधे और फलों के रस से तेजाब (Acid) बनाने का वर्णन है।

नागार्जुन ने सुश्रुत संहिता के पूरक के रूप में उत्तर तन्त्र नामक पुस्तक भी लिखी। इसमें दवाइयां बनाने के तरीके दिये गये हैं। आयुर्वेद की एक पुस्तक `आरोग्यमजरी' भी लिखी।

तो देखा आपने सनातनी भारत में अन्य विज्ञानों के साथ साथ रसायन विज्ञान भी अपनी उत्कृष्ट अवस्था में था.

खगोलशास्त्र के पितृपुरुष - आर्यभट्ट . Patriarch of Astronomy - Aryabhatta

"जब जीरो दिया मेरे भारत ने, दुनिया को गिनती आई" फिल्म पूरब और पश्चिम के इस गीत के बोल आपने भी सुने होंगे... पर आर्यभट्ट ने भारत को सिर्फ जीरो ही नहीं... विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान का अथाह सागर दिया था... आर्यभट्ट ही Astronomy (खगोलशास्त्र) के पितृपुरुष थे... उन्ही के ज्ञान को विदेशियों और मलेच्छों ने अपना बताकर खूब वाहवाही बटोरी... पर सत्य छुपाये नहीं छुपता... जिन मलेच्छों ने विश्व को कष्ट, दरिद्रता और और आतंकवाद के सिवा कुछ नहीं दिया... उनसे ज्ञान की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? ये तो उपकार है आर्यावर्त के जिसके परिश्रम को पश्चिमी जगत और मलेच्छ भुना रहे हैं...

आर्यभट्ट के आविष्कारों एवं खोजों की लिस्ट बहुत लम्बी है ... उन्होंने स्थानीय मान प्रणाली, शून्य अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में पाइ (pi) ,क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति, अनिश्चित समीकरण ,बीजगणित ,खगोल विज्ञान ,सौर प्रणाली की गतियां ,ग्रहण ,नक्षत्र अवधियाँ ,सूर्य केंद्रीयता से सम्बंधित कई महान खोजें की... http://www.charchaa.org/2010/history/aaryabhateeya1.html

जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विद्वानों के मध्य विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्माका के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है,

इन्होने आर्यभट्टीय नामक महान ग्रन्थ की रचना की... आर्यभटीय के एक श्‍लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्‍होंने इस पुस्‍तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ''कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।'' भारतीय ज्‍योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्‍वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्‍म 476 में होने की बात कही जाती है।

आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट्ट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।

उन्होंने आर्यभट्टीय में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[5] आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित की। उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय , गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धत किया गया है, और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है. आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं. इसमे निरंतर भिन्न (कॅंटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण(क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग(सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और जीवाओं की एक तालिका (टेबल ऑफ साइंस) शामिल हैं.

ये संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी (गूड) है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। चार अध्याय इस प्रकार है :

1. दशगीतिकापाद:- ब्रह्माण्ड की काल गणनाओ, ग्रहों की गति आदि का समावेश

2. गणितपाद :- खगोलीय अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित, वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन

3. कालक्रियापाद :- समय विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम

4. गोलपाद :- त्रिकोणमितीय समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण की गणना

पश्चिम में 15वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है परन्तु आर्यभट्ट ने 4थी सदी में ही भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-

अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌
विलोमंग यद्वत्‌।
अचलानि भानि तद्वत्‌ सम
पश्चिमगानि लंकायाम्‌॥ -आर्यभट्टीय गोलपाद-९

अर्थात्‌ - नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।

भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥

अर्थात्‌- तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।

भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था |

उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्‌॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)

अर्थात्‌ - जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।

आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।

बुध - आर्यभट्ट का मान 0.375 एयू - वर्तमान मान 0.387 एयू

शुक्र - आर्यभट्ट का मान 0.७२५ एयू - वर्तमान मान 0.723 एयू

मंगल - आर्यभट्ट का मान 1.538 एयू - वर्तमान मान 1.523 एयू

गुरु - आर्यभट्ट का मान 4.16 एयू - वर्तमान मान 4.20 एयू

शनि - आर्यभट्ट का मान 9.41 एयू - वर्तमान मान 9.54 एयू

आर्यभट्ट ने पाइ (Pi) के मान पर विस्तृत कार्य किया, . आर्यभटीय के दूसरे भाग (गणितपाद 10) में, वे लिखते हैं:

चतुराधिकम सतमासअगु अमद्वासास इस्त्तथा
सहस्रं अयुतादवायाविसकमभाष्यसन्नोवृत्तापरी अहा. - गणितपाद १०

अर्थात्‌- "१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें. इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है. "

इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १०० ) × ८ + ६२००० ) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है.

भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'सुवर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालंदा विश्वविद्याल ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।

आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।

उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।

आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी, उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे।

"गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।

आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।

आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।

गणितपद ६ में, आर्यभट्ट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है

त्रिभुजस्य फलाशारिरम
समदलाकोटि भुजर्धसमवर्गः - गणितपाद ६

अर्थात्‌ - एक त्रिकोण के लिए, अर्ध-पक्ष के साथ लम्ब का परिणाम क्षेत्रफ़ल है.

प्राचीन काल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक समाधान ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरुप में होती है, एक विषय जिसे डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है.यहाँ है आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण::

वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है.

अर्थात, बताएं N= 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है.सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे.इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पु. तक पुराने हो सकते हैं. ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट्ट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है.

कुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना, और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था.आज यह कलनविधि, ६२१ इसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट्ट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है. डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है, और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया. यहाँ क्लिक करें - http://www.facebook.com/photo.php?fbid=377194629070237&set=a.338314332958267.1073741828.100003391094649&type=1&theater

आर्यभट्ट को यह ज्ञात था कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है.यह श्रीलंका को संदर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है.

जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है. [अचलानी भानी समांपाशाचिमागानी - गोलापदा .9]

परन्तु अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है: "उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं.

लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक संदर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था.

आर्यभट्ट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की. इस मॉडल में, जो पाया जाता है

पितामहासिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रिह्चक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंदा (धीमा) गृहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) गृहचक्र. पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है : चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि, और नक्षत्र

ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं, और मंगल, बृहस्पति, और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं.खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि गृहचक्र वाला मॉडल प्री-टोलेमिक ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है. आर्यभट्ट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका , सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है.

उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं.मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया.इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७), और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८), और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना.बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट्ट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था. यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतियों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे.

आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है.यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनका गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी.

समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट्ट की गणना के अनुसार पृथ्वी की अवधि (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है. इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है.नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, यह संगणना सबसे सटीक थी.

आर्यभट्ट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी गृहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं.इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट्ट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे गृह सूर्य का चक्कर लगाते हैं.

भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट्ट के कार्य का बड़ा प्रभाव था, और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया.इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था. उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है, और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें संदर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट्ट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है.

साइन(ज्य ), कोसाइन(कोज्या ) के साथ ही , वरसाइन (उक्रमाज्य ) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (ओत्क्रम ज्या ), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया.वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने निर्दिष्ट किया था साइन और वरसाइन(१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक.

वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट्ट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के ग़लत उच्चारण हैं.

आर्यभट्ट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी. आर्यभट्ट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, .इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है. यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी.

भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट्ट, को उनका नाम दिया गया.चंद्र खड्ड आर्यभट्ट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है.खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञानं अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है.

अंतर्स्कूल आर्यभट्ट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है. बैसिलस आर्यभट्ट , इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है.


आर्यभट्ट का प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है -

क. चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)

ख. अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)

(अर्थ-नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।

मैं कुछ लिक दे रहा हूँ इन्हें ओपन करके ध्यानपूर्वक पढ़ें -

१. - http://www.charchaa.org/2010/history/aaryabhateeya1.html

२. - http://titus.uni-frankfurt.de/texte/etcs/ind/aind/klskt/mathemat/aryabhat/aryab.htm

३. - http://www.gongol.com/research/math/aryabhatiya/

४. - http://www-history.mcs.st-andrews.ac.uk/history/Projects/Pearce/Chapters/Ch8_2.html

५. - http://www.new.dli.ernet.in/insa/INSA_1/2000616e_101.pdf

६. - http://people.scs.fsu.edu/~dduke/india8.pdf

सनातनी आर्यावर्त को नमन है

विश्व की पहली भूगोल पुस्तक - श्री विष्णु पुराण . World's first Geography Book - Shri Vishnu Puran

जी हाँ! ठीक शीर्षक पढ़ा आपने, पृथ्वी का संपूर्ण लिखित वर्णन सबसे पहले विष्णु पुराण में देखने को मिलता है... विष्णु पुराण के रचियता है... महान ऋषि पाराशर...

ऋषि पाराशर महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा एवं ग्रंथकार थे... राक्षस द्वारा मारे गए वसिष्ठ के पुत्र शक्ति से इनका जन्म हुआ। बड़े होने पर माता अदृश्यंती से पिता की मृत्यु की बात ज्ञात होने पर राक्षसों के नाश के निमित्त इन्होंने राक्षस सत्र नामक यज्ञ शुरू किया जिसमें अनेक निरपराध राक्षस मारे जाने लगे। यह देखकर पुलस्त्य आदि ऋषियों ने उपदेश देकर इनकी राक्षसों के विनाश से निवृत्त किया और पुराण प्रवक्ता होने का वर दिया। इसके पश्चात् इन्होने विष्णु पुराण की रचना की...

यह पुराण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है।

यहाँ स्वयं भगवान् कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं-

“त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया।
मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रुष्टुमर्हसि शङ्कर।
योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्।
मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वं ज्ञातुमिहार्हसि।
अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः।
वन्दति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर॥"

इस पुराण में इस समय सात हजार श्लोक उपलब्ध हैं। कई ग्रन्थों में इसकी श्लोक संख्या तेईस हजार बताई जाती है। विष्णु पुराण में पुराणों के पांचों लक्षणों अथवा वर्ण्य-विषयों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का वर्णन है। सभी विषयों का सानुपातिक उल्लेख किया गया है। बीच-बीच में अध्यात्म-विवेचन, कलिकर्म और सदाचार आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।

ये निम्नलिखित भागों मे वर्णित है-

१. पूर्व भाग-प्रथम अंश
२. पूर्व भाग-द्वितीय अंश
३. पूर्व भाग-तीसरा अंश
४. पूर्व भाग-चतुर्थ अंश
५. पूर्व भाग-पंचम अंश
६. पूर्व भाग-छठा अंश
७. उत्तरभाग

यहाँ पर मैं सारे भागों का संछिप्त वर्णन भी नहीं करना चाहता... क्योकिं लेख के अत्याधिक लम्बे हो जाने की सम्भावना है ... परन्तु लेख की विषय वस्तु के हिसाब से इसके "पूर्व भाग-द्वितीय अंश" का परिचय देना चाहूँगा .... इस भाग में ऋषि पाराशर ने पृथ्वी के द्वीपों, महाद्वीपों, समुद्रों, पर्वतों, व धरती के समस्त भूभाग का विस्तृत वर्णन किया है...

ये वर्णन विष्णु पुराण में ऋषि पाराशर जी श्री मैत्रेय ऋषि से कर रहे हैं उनके अनुसार इसका वर्णन सहस्त्र वर्षों में भी नहीं हो सकता है। यह केवल अति संक्षेप वर्णन है। हम इससे इसकी महानता तथा व्यापकता का अंदाजा लगा सकते हैं...

जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।

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ऋषि पाराशर के अनुसार ये पृथ्वी सात महाद्वीपों में बंटी हुई है... (आधुनिक समय में भी ये ७ Continents में विभाजित है यानि - Asia, Africa, North America, South America, Antarctica, Europe, and Australia)

ऋषि पाराशर के अनुसार इन महाद्वीपों के नाम हैं -

१. जम्बूद्वीप
२. प्लक्षद्वीप
३. शाल्मलद्वीप
४. कुशद्वीप
५. क्रौंचद्वीप
६. शाकद्वीप
७. पुष्करद्वीप

ये सातों द्वीप चारों ओर से क्रमशः खारे पानी, नाना प्रकार के द्रव्यों और मीठे जल के समुद्रों से घिरे हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं, और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं। जम्बुद्वीप इन सब के मध्य में स्थित है।
इनमे से जम्बुद्वीप का सबसे विस्तृत वर्णन मिलता है... इसी में हमारा भारतवर्ष स्थित है...

सभी द्वीपों के मध्य में जम्बुद्वीप स्थित है। इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे कई ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है, तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।

सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्ष पर्वत हैं, जो भिन्न भिन्न वर्षों का भाग करते हैं। सुमेरु के उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी वर्षपर्वत हैं। इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं। हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं। हिमवान और शृंगी अस्सी अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं।
मेरु पर्वत के दक्षिण में पहला वर्ष भारतवर्ष कहलाता है, दूसरा किम्पुरुषवर्ष तथा तीसरा हरिवर्ष है। इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और तीसरा उत्तरकुरुवर्ष है। उत्तरकुरुवर्ष द्वीपमण्डल की सीमा पार होने के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है।

इन सबों का विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है। इन सब के मध्य में इलावृतवर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार योजन फ़ैला हुआ है। एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो कि ईश्वरीकृत कीलियां हैं, जो कि सुमेरु को धारण करती हैं,

ये सभी पर्वत इस प्रकार से हैं:-

पूर्व में मंदराचल
दक्षिण में गंधमादन
पश्चिम में विपुल
उत्तर में सुपार्श्व

ये सभी दस दस हजार योजन ऊंचे हैं। इन पर्वतों पर ध्वजाओं समान क्रमश कदम्ब, जम्बु, पीपल और वट वृक्ष हैं। इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। यहाँ से जम्बु नद नामक नदी बहती है। उसका जल का पान करने से बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता। उसके मिनारे की मृत्तिका (मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक सुवर्ण बनकर सिद्धपुरुषों का आभूषण बनती है।

मेरु पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है, और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ , दक्षिण की ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन नामक वन हैं। तथा सदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये चार सरोवर हैं।

मेरु के पूर्व में

शीताम्भ,
कुमुद,
कुररी,
माल्यवान,
वैवंक आदि पर्वत हैं।

मेरु के दक्षिण में

त्रिकूट,
शिशिर,
पतंग,
रुचक
और निषाद आदि पर्वत हैं।

मेरु के उत्तर में

शंखकूट,
ऋषभ,
हंस,
नाग
और कालंज पर्वत हैं।

समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष स्थित है। इसका विस्तार नौ हजार योजन है। यह स्वर्ग अपवर्ग प्राप्त कराने वाली कर्मभूमि है। इसमें सात कुलपर्वत हैं: महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विंध्य और पारियात्र ।

भारतवर्ष के नौ भाग हैं:

इन्द्रद्वीप,
कसेरु,
ताम्रपर्ण,
गभस्तिमान,
नागद्वीप,
सौम्य,
गन्धर्व
और वारुण, तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवां है।

यह द्वीप उत्तर से दक्षिण तक सहस्र योजन है। यहाँ चारों वर्णों के लोग मध्य में रहते हैं। शतद्रू और चंद्रभागा आदि नदियां हिमालय से, वेद और स्मृति आदि पारियात्र से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचल से, तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्ष्यगिरि से निकली हैं। गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, सह्य पर्वत से; कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रगिरि से तथा ऋषिकुल्या एवंकुमारी आदि नदियां शुक्तिमान पर्वत से निकलीं हैं। इनकी और सहस्रों शाखाएं और उपनदियां हैं।

इन नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, मध्याअदि देशों के; पूर्व देश और कामरूप के; पुण्ड्र, कलिंग, मगध और दक्षिणात्य लोग, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव और पारियात्र निवासी; सौवीर, सन्धव, हूण; शाल्व, कोशल देश के निवासी तथा मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण रहते हैं। भारतवर्ष में ही चारों युग हैं, अन्यत्र कहीं नहीं। इस जम्बूद्वीप को बाहर से लाख योजन वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र ने चारों ओर से घेरा हुआ है। जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है।

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प्लक्षद्वीप का वर्णन -

प्लक्षद्वीप का विस्तार जम्बूद्वीप से दुगुना है। यहां बीच में एक विशाल प्लक्ष वृक्ष लगा हुआ है। यहां के स्वामि मेधातिथि के सात पुत्र हुए हैं। ये थे:
शान्तहय,
शिशिर,
सुखोदय,
आनंद,
शिव,
क्षेमक,
ध्रुव ।

यहां इस द्वीप के भी भारतवर्ष की भांति ही सात पुत्रों में सात भाग बांटे गये, जो उन्हीं के नामों पर रखे गये थे: शान्तहयवर्ष, इत्यादि।

इनकी मर्यादा निश्चित करने वाले सात पर्वत हैं:

गोमेद,
चंद्र,
नारद,
दुन्दुभि,
सोमक,
सुमना
और वैभ्राज।

इन वर्षों की सात ही समुद्रगामिनी नदियां हैं अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता। इनके अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। इन लोगों में ना तो वृद्धि ना ही ह्रास होता है। सदा त्रेतायुग समान रहता है। यहां चार जातियां आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। यहीं जम्बू वृक्ष के परिमाण वाला एक प्लक्ष (पाकड़) वृक्ष है। इसी के ऊपर इस द्वीप का नाम पड़ा है।

प्लक्षद्वीप अपने ही परिमाण वाले इक्षुरस के सागर से घिरा हुआ है।

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शाल्मल द्वीप का वर्णन

इस द्वीप के स्वामि वीरवर वपुष्मान थे। इनके सात पुत्रों :
श्वेत,
हरित,
जीमूत,
रोहित,
वैद्युत,
मानस
और सुप्रभ के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। इक्षुरस सागर अपने से दूने विस्तार वाले शाल्मल द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।

इसमें महाद्वीप में
कुमुद,
उन्नत,
बलाहक,
द्रोणाचल,
कंक,
महिष,
ककुद्मान नामक सात पर्वत हैं।

इस महाद्वीप में -
योनि,
तोया,
वितृष्णा,
चंद्रा,
विमुक्ता,
विमोचनी
एवं निवृत्ति नामक सात नदियां हैं।

यहाँ -
श्वेत,
हरित,
जीमूत,
रोहित,
वैद्युत,
मानस
और सुप्रभ नामक सात वर्ष हैं।

यहां -
कपिल,
अरुण,
पीत
और कृष्ण नामक चार वर्ण हैं।

यहां शाल्मल (सेमल) का अति विशाल वृक्ष है। यह महाद्वीप अपने से दुगुने विस्तार वाले सुरासमुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।

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कुश द्वीप का वर्णन

इस द्वीप के स्वामि वीरवर ज्योतिष्मान थे।

इनके सात पुत्रों :
उद्भिद,
वेणुमान,
वैरथ,
लम्बन,
धृति,
प्रभाकर,
कपिल

इनके नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। मदिरा सागर अपने से दूने विस्तार वाले कुश द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।

पर्वत -
विद्रुम,
हेमशौल,
द्युतिमान,
पुष्पवान,
कुशेशय,
हरि
और मन्दराचल नामक सात पर्वत हैं।

नदियां -

धूतपापा,
शिवा,
पवित्रा,
सम्मति,
विद्युत,
अम्भा
और मही नामक सात नदियां हैं।

सात वर्ष -

उद्भिद,
वेणुमान,
वैरथ,
लम्बन,
धृति,
प्रभाकर,
कपिल नामक सात वर्ष हैं।

वर्ण -

दमी,
शुष्मी,
स्नेह
और मन्देह नामक चार वर्ण हैं।

यहां कुश का अति विशाल वृक्ष है। यह महाद्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।

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क्रौंच द्वीप का वर्णन -

इस द्वीप के स्वामि वीरवर द्युतिमान थे।

इनके सात पुत्रों :

कुशल,
मन्दग,
उष्ण,
पीवर,
अन्धकारक,
मुनि
और दुन्दुभि के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।

पर्वत -

क्रौंच,
वामन,
अन्धकारक,
घोड़ी के मुख समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत,
दिवावृत,
पुण्डरीकवान,
महापर्वत
दुन्दुभि नामक सात पर्वत हैं।

नदियां -

गौरी,
कुमुद्वती,
सन्ध्या,
रात्रि,
मनिजवा,
क्षांति
और पुण्डरीका नामक सात नदियां हैं।

सात वर्ष -

कुशल,
मन्दग,
उष्ण,
पीवर,
अन्धकारक,
मुनि और
दुन्दुभि ।

वर्ण -

पुष्कर,
पुष्कल,
धन्य
और तिष्य नामक चार वर्ण हैं।

यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले शाक द्वीप से घिरा है।

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शाकद्वीप का वर्णन -

इस द्वीप के स्वामि भव्य वीरवर थे।

इनके सात पुत्रों :

जलद,
कुमार,
सुकुमार,
मरीचक,
कुसुमोद,
मौदाकि
और महाद्रुम के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं।

यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।

पर्वत -

उदयाचल,
जलाधार,
रैवतक,
श्याम,
अस्ताचल,
आम्बिकेय
और अतिसुरम्य गिरिराज केसरी नामक सात पर्वत हैं।

नदियां -

सुमुमरी,
कुमारी,
नलिनी,
धेनुका,
इक्षु,
वेणुका
और गभस्ती नामक सात नदियां हैं।

सात वर्ष -

जलद,
कुमार,
सुकुमार,
मरीचक,
कुसुमोद,
मौदाकि
और महाद्रुम ।

वर्ण -

वंग,
मागध,
मानस
और मंगद नामक चार वर्ण हैं।

यहां अति महान शाक वृक्ष है, जिसके वायु के स्पर्श करने से हृदय में परम आह्लाद उत्पन्न होता है। यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले पुष्कर द्वीप से घिरा है।

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पुष्करद्वीप का वर्णन -

इस द्वीप के स्वामि सवन थे।

इनके दो पुत्र थे:

महावीर
और धातकि।

यहां एक ही पर्वत और दो ही वर्ष हैं।

पर्वत -

मानसोत्तर नामक एक ही वर्ष पर्वत है। यह वर्ष के मध्य में स्थित है । यह पचास हजार योजन ऊंचा और इतना ही सब ओर से गोलाकार फ़ैला हुआ है। इससे दोनों वर्ष विभक्त होते हैं, और वलयाकार ही रहते हैं।

नदियां -
यहां कोई नदियां या छोटे पर्वत नहीं हैं।

वर्ष -

महवीर खण्ड
और धातकि खण्ड।

महावीरखण्ड वर्ष पर्वत के बाहर की ओर है, और बीच में धातकिवर्ष है ।

वर्ण -

वंग,
मागध,
मानस
और मंगद नामक चार वर्ण हैं।

यहां अति महान न्यग्रोध (वट) वृक्ष है, जो ब्रह्मा जी का निवासस्थान है यह द्वीप अपने ही बराबर के मीठे पानी से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।

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समुद्रो का वर्णन -

यह सभी सागर सदा समान जल राशि से भरे रहते हैं, इनमें कभी कम या अधिक नही होता। हां चंद्रमा की कलाओं के साथ साथ जल बढ़्ता या घटता है। (ज्वार-भाटा) यह जल वृद्धि और क्षय 510 अंगुल तक देखे गये हैं।

पुष्कर द्वीप को घेरे मीठे जल के सागर के पार उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिल्खायी देती है। वहां दस सहस्र योजन वाले लोक-आलोक पर्वत हैं। यह पर्वत ऊंचाई में भी उतने ही सहस्र योजन है। उसके आगे पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए घोर अन्धकार छाया हुआ है। यह अन्धकार चारों ओर से ब्रह्माण्ड कटाह से आवृत्त है। (अन्तरिक्ष) अण्ड-कटाह सहित सभी द्वीपों को मिलाकर समस्त भू-मण्डल का परिमाण पचास करोड़ योजन है। (सम्पूर्ण व्यास)

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आधुनिक नामों की दृष्टी से विष्णु पुराण का सन्दर्भ देंखे तो... हमें कई समानताएं सिर्फ विश्व का नक्शा देखने भर से मिल जायेंगी...

१. विष्णु पुराण में पारसीक - ईरान को कहा गया है,
२. गांधार वर्तमान अफगानिस्तान था,
३. महामेरु की सीमा चीन तथा रशिया को घेरे है.
४. निषध को आज अलास्का कहा जाता है.
५. प्लाक्ष्द्वीप को आज यूरोप के नाम से जाना जाता है.
६. हरिवर्ष की सीमा आज के जापान को घेरे थी.
७. उत्तरा कुरव की स्तिथि को देंखे तो ये फ़िनलैंड प्रतीत होता है.

इसी प्रकार विष्णु पुराण को पढ़कर विश्व का एक सनातनी मानचित्र तैयार किया जा सकता है... ये थी हमारे ऋषियों की महानता

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अब एक महत्त्वपूर्ण बात -

महाभारत में पृथ्वी का पूरा मानचित्र हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया गया था।

महाभारत में कहा गया है कि - यह पृथ्वी चन्द्रमंडल में देखने पर दो अंशों मे खरगोश तथा अन्य दो अंशों में पिप्पल (पत्तों) के रुप में दिखायी देती है-

उक्त मानचित्र ११वीं शताब्दी में रामानुजचार्य द्वारा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक को पढ्ने के बाद बनाया गया था-

"सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन।
परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः।
एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥
द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।

"अर्थात हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है।"

अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से शत प्रतिशत समानता दिखाता है। 




संपूर्ण विष्णु पुराण पढने के लिए यहाँ क्लिक करें - http://www.bharatadesam.com/spiritual/vishnu_purana.php

सनातनी ग्रंथों में प्राणी विज्ञान - Zoology in Ancient Indian Scriptures

भारतीय परम्परा के अनुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति अनेक ग्रंथों में हुई है। श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णन आता है-

सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ (११-९-२८ श्रीमद्भागवतपुराण)

विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई। इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु उससे उस चेतना को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई, अत: मनुष्य का निर्माण हुआ जो उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था।

दूसरी बात, भारतीय परम्परा में जीवन के प्रारंभ से मानव तक की यात्रा में ८४ लाख योनियों के बारे में कहा गया। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि अमीबा से लेकर मानव तक की यात्रा में चेतना १ करोड़ ४४ लाख योनियों से गुजरी है। आज से हजारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने यह साक्षात्कार किया, यह आश्चर्यजनक है। अनेक आचार्यों ने इन ८४ लाख योनियों का वर्गीकरण किया है।

समस्त प्राणियों को दो भागों में बांटा गया है, योनिज तथा आयोनिज। दो के संयोग से उत्पन्न या अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होने वाले।

इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को तीन भागों में बांटा गया:-

१. जलचर - जल में रहने वाले सभी प्राणी।

२. थलचर - पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।

३. नभचर - आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।

इसके अतिरिक्त प्राणियों की उत्पत्ति के आधार पर ८४ लाख योनियों को चार प्रकार में वर्गीकृत किया गया।

१. जरायुज - माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।

२. अण्डज - अण्डों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाये।

३. स्वदेज- मल, मूत्र, पसीना आदि से उत्पन्न क्षुद्र जन्तु स्वेदज कहलाते हैं।

४. उदि्भज- पृथ्वी से उत्पन्न प्राणियों को उदि्भज वर्ग में शामिल किया गया।

बृहत्‌ विष्णु पुराण में संख्या के आधार पर विविध योनियों का वर्गीकरण किया गया।

१. स्थावर - २० लाख प्रकार

२. जलज - ९ लाख प्रकार

३. कूर्म- भूमि व जल दोनों जगह गति ऐ ९ लाख प्रकार

४. पक्षी- १० लाख प्रकार

५. पशु- ३० लाख प्रकार

६. वानर - ४ लाख प्रकार

७. शेष मानव योनि में।

इसमें एक-एक योनि का भी विस्तार से विचार हुआ। पशुओं को साधारणत: दो भागों में बांटा (१) पालतू (२) जंगली।

इसी प्रकार शरीर रचना के आधार पर भी वर्गीकरण हुआ।

इसका उल्लेख विभिन्न आचार्यों के वर्गीकरण के सहारे ‘प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प‘ ग्रंथ में किया गया है। www.kamat.com/kalranga/prani/animals.htm

इसके अनुसार

(१) एक शफ (एक खुर वाले पशु) - खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।

(२) द्विशफ (दो खुल वाले पशु)- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।

(३) पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु- सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृगाल आदि। (प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प-पृ. सं. १०७-११०)

डा. विद्याधर शर्मा ‘गुलेरी‘ अपने ग्रंथ ‘संस्कृत में विज्ञान‘ में चरक द्वारा किए गए प्राणियों के वर्गीकरण के बारे में बताते हैं। www.new1.dli.ernet.in/data1/upload/insa/...1/20005b64_119.pdf

चरक ने भी प्राणियों को उनके जन्म के अनुसार जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदि्भज वर्गों में विभाजित किया है (चरक संहिता, सूत्रस्थान, २७/३५-५४) उन्होंने प्राणियों के आहार-विहार के आधार पर भी निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया है-

१. प्रसह- इस वर्ग में गौ, गदहा, खच्चर, ऊंट, घोड़ा, चीता, सिंह, रीछ, वानर, भेड़िया, व्याघ्र, पर्वतों के पास रहने वाले बहुत बालों वाले कुत्ते, बभ्रु, मार्जार, कुत्ता, चूहा, लोमड़ी, गीदड़, बाघ, बाज, कौवा, शशघ्री (ऐसे पक्षी जो शशक को भी अपने पंजों में पकड़ कर उठा ले जाते हैं) चील, भास, गिद्ध, उल्लू, सामान्य घरेलू चिड़िया (गौरेया), कुरर (वह पक्षी जो जल स्थित मछली को अपने नख से भेद कर उड़ा ले जाता है।)

२. भूमिशय-बिलों में रहने वाले जन्तु-सर्प (श्वेत-श्यामवर्ण का) चित्रपृष्ठ (जिसकी पृष्ठ चित्रित होती है), काकुली मृग-एक विशेष प्रकार का सर्प- मालुयासर्प, मण्डूक (मेंढक) गोह, सेह, गण्डक, कदली (व्याघ्र के आकार की बड़ी बिल्ली), नकुल (नेवला), श्वावित्‌ (सेह का भेद), चूहा आदि।

३. अनूपदेश के पशु-अर्थात्‌ जल प्रधान देश में रहने वाले प्राणी। इन में सूकर (महा शूकर), चमर (जिनकी पूंछ चंवर बनाने के काम आती है), गैण्डा, महिष (जंगली भैंसा), नीलगाय, हाथी, हिरण , वराह (सुअर) बारहसिंगा- बहुत सिंगों वाले हिरण सम्मिलित हैं।

४. वारिशय-जल में रहने वाले जन्तु-कछुआ, केकड़ा, मछली, शिशुमार (घड़ियाल, नक्र की एक जाति) पक्षी। हंस, तिमिंगिल, शुक्ति (सीप का कीड़ा), शंख, ऊदबिलाव, कुम्भीर (घड़ियाल), मकर (मगरमच्छ) आदि।

५. वारिचारी-जल में संचार करने वाले पक्षी - हंस क्रौञ्च, बलाका, बगुला, कारण्डव (एक प्रकार का हंस), प्लव, शरारी, केशरी, मानतुण्डका, मृणालण्ठ, मद्गु (जलकाक), कादम्ब (कलहंस), काकतुण्डका (श्वेत कारण्डव-हंस की जाति) उत्क्रोश (कुरर पक्षी की जाति) पुण्डरीकाक्ष, चातक, जलमुर्गा, नन्दी मुखी, समुख, सहचारी, रोहिणी, सारस, चकवा आदि।

६. जांगल पशु- स्थल पर उत्पन्न होने वाले तथा जंगल में संचार करने वाले पशु- चीतल, हिरण, शरभ (ऊंट के सदृश बड़ा और आठ पैर वाला, जिसमें चार पैर पीठ पर होते हैं-ऐसा मृग), चारुष्क (हरिण की जाति) लाल वर्ण का हरिण, एण (काला हिरण) शम्बर (हिरण भेद) वरपोत (मृग भेद), ऋष्य आदि जंगली मृग।

७. विष्किर पक्षी-जो अपनी चोंच और पैरों से इधर-उधर बिखेर कर खाते हैं, वे विष्किर पक्षी हैं। इनमें लावा (बटेर), तीतर, श्वेत तीतर, चकोर, उपचक्र (चकोर का एक भेद), लाल वर्ग का कुक्कुभ (कुको), वर्तक, वर्तिका, मोर, मुर्गा, कंक, गिरिवर्तक, गोनर्द, क्रनर और बारट आदि।

८. प्रतुद पक्षी-जो चोंच या पंजों से बार-बार चोट लगाकर आहार को खाते हैं। कठफोड़ा भृंगराज (कृष्णवर्ण का पक्षी विशेष), जीवंजीवक, (विष को देखने से ही इस पक्षी की मृत्यु हो जाती है), कोकिल, कैरात (कोकिक का भेद), गोपपुत्र- प्रियात्मज, लट्वा, बभ्रु, वटहा, डिण्डिमानक, जटायु, लौहपृष्ठ, बया, कपोत (घुग्घु), तोता, सारंग (चातक), शिरटी, शरिका (मैना) कलविंक (गृहचटक अथवा लाल सिर और काली गर्दन वाली गृहचटक सदृश चिड़ियां), चटक, बुलबुल, कबूतर आदि।

उपर्युक्त वर्गीकरण के साथ चरक ने इन प्राणियों की मांस और उसके उपयोग के साथ ही बात, पित्त और कफ पर उसके प्रभाव की भी विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है। चकोर, मुर्गी, मोर, बया और चिड़ियों के अंडों की भी आहार के रूप में चर्चा की गई है। www.asianagrihistory.org/vol-10/veterniray.pdf

ऐसे ही सुश्रुत की सुश्रुत संहिता, पाणिनि के अष्टाध्यायी, पतञ्जलि के महाभाष्य, अमर सिंह के अमरकोष, दर्शन के प्रशस्तपादभाष्य आदि ग्रंथों में प्राणियों के वर्गीकरण के विस्तृत विवरण मिलते हैं। (प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प-पृ.सं.११५-११७)

पुराणों के अन्य विषयों के साथ-साथ पशु-चिकित्सा के विषय में भी उल्लेख मिलते हैं। अश्वों की चिकित्सा के लिए आयुर्वेद का एक अलग विभाग था। इसका ‘शालिहोत्र‘ नाम रखा गया। अश्वों के सामान्य परिचय, उनके चलने के प्रकार, उनके रोग और उपचार आदि विषय पुराणों में वर्णित हैं। अग्निपुराण में अश्वचालन और अश्वचिकित्सा का विस्तृत विवरण है। गजचिकित्सा के साथ ही गजशान्ति के उपाय भी बताये गए हैं।

गरुड़पुराण में भी पालकाप्य ऋषि के हस्तिविद्या विषयक ग्रन्थ का उल्लेख है। अग्निपुराण में गायों की चिकित्सा का विस्तृत विवरण है।

मानव चिकित्सा क्षेत्र में चरक संहिता और सुश्रुतसंहिता जितनी महत्वपूर्ण हैं, अश्वचिकित्सा क्षेत्र में शालिहोत्र संहिता उतनी ही महत्वपूर्ण है। शालिहोत्र का काल ई। पू. लगभग ८०० वर्ष आंका जा सकता है। उनकी संहिता ‘हय आयुर्वेद‘ एवं ‘तुरगशास्त्र‘ के नाम से भी प्रसिद्ध रही है। मूल ग्रन्थ में १२,००० श्लोकों का समावेश है। यह आठ भागों में विभक्त था। इस ग्रन्थ के कुछ ही भाग अब उपलब्ध हैं। इसमें अश्वों के लक्षण, उनके सभी रोग और उनके निदान, चिकित्सा, औषधियों और उनके स्वास्थ्य रक्षण के विचार विस्तार से बताए गए हैं। इस संहिता का अनुवाद अरबी, फारसी, तिब्बती एवं अंग्रेजी भाषाओं में किया गया है। पशुचिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार यह अश्व चिकित्सा के आधुनिक ग्रन्थ से भी उत्कृष्ट ग्रन्थ है। अधिक जानकारी के लिए प्राचीन भारत में विज्ञान शिल्प नामक पुस्तक पढ़े, ये जानकारी आपको इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या १२५-१२६ में मिलेगी!

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सभी अठारह पुराणों की गणना में ‘पदम पुराण’ को द्वितीय स्थान प्राप्त है। श्लोक संख्या की दृष्टि से भी इसे द्वितीय स्थान रखा जा सकता है। पहला स्थान स्कंद पुराण को प्राप्त है।

महर्षि वेदव्यास महाभारत के समय अर्थात लगभग 5000 ईसापूर्व थे अर्थात आज से 7000 वर्ष पूर्व (लगभग)

पदम् पुराण में हमें एक श्लोक मिलता है

जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यकः
पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशवः, चतुर लक्षाणी मानवः - (७८:५ पदम् पुराण)

jalaja nava lakshani, sthavara laksha-vimshati, krimayo rudra-sankhyakah,
pakshinam dasha-lakshanam, trinshal-lakshani pashavah, chatur lakshani manavah

अर्थात - १. जलज/ जलीय जिव/जलचर (Water based life forms) – 9 लाख (0.9 million)

२. स्थिर अर्थात पेड़ पोधे (Immobile implying plants and trees) – 20 लाख (2.0 million)

३. सरीसृप/कृमी/कीड़े-मकोड़े (Reptiles) – 11 लाख (1.1 million)

४. पक्षी/नभचर (Birds) – 10 लाख 1.0 मिलियन

५. स्थलीय/थलचर (terrestrial animals) – 30 लाख (3.0 million)

६. शेष मानवीय नस्ल के

कुल = 84 लाख ।

इस प्रकार हमें 7000 वर्ष पुराने मात्र एक ही श्लोक में न केवल पृथ्वी पर उपस्थित प्रजातियों की संख्या मिलती है वरन उनका वर्गीकरण भी मिलता है ।

7000 year old texts are not only suggesting that there are 8.4 million species or 8.4 million different life forms on earth, but have also categorized them!

यहाँ देखें - http://www.dandavats.com/?p=8822

तथा 23 अगस्त 2011 के The New York Times में छपा ये लेख पढ़े :-
http://www.nytimes.com/2011/08/30/science/30species.html?_r=1&

उपरोक्त से स्पष्ट है की हमारे ग्रंथों में वर्णित ये जानकरी हमारे पुरखों के सेकड़ों वर्षों की खोज है उन्होंने न केवल धरती पर चलने वाले अपितु आकाश में व् अथाह समुद्रों की गहराइयों में रहने वाले जीवों का भी अध्ययन किया ।

निश्चय ही उस समय पनडुब्बीयां (Submarine) भी रही होंगी । विमान बना लेने वालों के लिए पनडुब्बी बनाना कोन सी बड़ी बात थी ? 

सनातनी विज्ञान को नमन है

सनातनी भारत का नौकायन विज्ञान एवं नौका शास्त्र . The Ancient Indian Ship Science.

समुद्र यात्रा भारतवर्ष में सनातन से प्रचलित रही है। महान महर्षि अगस्त्य स्वयं समुद्री द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा करने वाले महापुरुष थे। संस्कृति के प्रचार के निमित्त या नए स्थानों पर व्यापार के निमित्त दुनिया के देशों में भारतीयों का आना-जाना था।

कौण्डिन्य समुद्र पार कर दक्षिण पूर्व एशिया पहुंचे। एस. सोनी जी ने अपने शोध में बताया है की, मैक्सिको के यूकाटान प्रांत में जवातुको नामक स्थान पर प्राप्त सूर्य मंदिर के शिलालेख में नाविक वुसुलिन के शक संवत् ८८५ में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। गुजरात के लोथल में हुई खुदाई में ध्यान में आता है कि ई. पूर्व २४५० के आस-पास बने बंदरगाह द्वारा इजिप्त के साथ सीधा सामुद्रिक व्यापार होता था। २४५० ई.पू. से २३५० ई.पू. तक छोटी नावें इस बंदरगाह पर आती थीं। बाद में बड़े जहाजों के लिए आवश्यक रचनाएं खड़ी की गएं तथा नगर रचना भी हुई। - http://en.wikipedia.org/wiki/Indian_Ocean_trade

प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक के नौ निर्माण कला का उल्लेख प्रख्यात बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू अमेरिका‘ में किया है। इसी प्रकार सन् १९५० में कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक में गंगा शंकर मिश्र ने भी विस्तार से इस इतिहास को लिखा है। - http://thegr8wall.wordpress.com/2013/03/05/ancient-indian-navigators/

भारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।

नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम।
सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्॥ - महाभारत

अर्थात - अर्थात्-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।

इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।

सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्।

अर्थात् - यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।

कौटिलीय (चाणक्य के) अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। ५वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत ‘बृहत् संहिता‘ तथा ११वीं सदी के राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है। नौका विशेषज्ञ "राजा भोज" ने नौका एवं बड़े जहाजों के निर्माण का विस्तृत वर्णन किया है... बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल की ‘हिन्दू अमेरिका‘ पुस्तक के (पृष्ठ ३५७) अनुसार राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि का विश्लेषण किया गया है।

(१) सामान्य- वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें।

(२) विशेष- जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके।

उत्कृष्ट निर्माण-कल्याण (हिन्दू संस्कृति अंक - १९५०) में नौका की सजावट का सुंदर वर्णन आता है।

"चार श्रंग (मस्तूल) वाली नौका सफेद, तीन श्रृग वाली लाल, दो श्रृंग वाली पीली तथा एक श्रंग वाली को नीला रंगना चाहिए।" नौका मुख-नौका की आगे की आकृति यानी नौका का मुख सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।

भारत पर मुस्लिम आक्रमण ७वीं सदी में प्रारंभ हुआ। उस काल में भी भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे। मार्कपोलो तेरहवीं सदी में भारत में आया। वह लिखता है ‘जहाजों में दोहरे तख्तों की जुड़ाई होती थी, लोहे की कीलों से उनको मजबूत बनाया जाता था और उनके सुराखों को एक प्रकार की गोंद में भरा जाता था। इतने बड़े जहाज होते थे कि उनमें तीन-तीन सौ मल्लाह लगते थे। एक-एक जहाज पर ३ से ४ हजार तक बोरे माल लादा जा सकता था। इनमें रहने के लिए ऊपर कई कोठरियां बनी रहती थीं, जिनमें सब तरह के आराम का प्रबंध रहता था। जब पेंदा खराब होने लगता तब उस पर लकड़ी की एक नयी तह को जड़ लिया जाता था। इस तरह कभी-कभी एक के ऊपर एक ६ तह तक लगायी जाती थी।‘

१५वीं सदी में निकोली कांटी नामक यात्री भारत आया। उसने लिखा कि ‘भारतीय जहाज हमारे जहाजों से बहुत बड़े होते हैं। इनका पेंदा तिहरे तख्तों का इस प्रकार बना होता है कि वह भयानक तूफानों का सामना कर सकता है। कुछ जहाज ऐसे बने होते हैं कि उनका एक भाग बेकार हो जाने पर बाकी से काम चल जाता है।‘

बर्थमा नामक यात्री लिखता है ‘लकड़ी के तख्तों की जुड़ाई ऐसी होती है कि उनमें जरा सा भी पानी नहीं आता। जहाजों में कभी दो पाल सूती कपड़े के लगाए जाते हैं, जिनमें हवा खूब भर सके। लंगर कभी-कभी पत्थर के होते थे। ईरान से कन्याकुमारी तक आने में आठ दिन का समय लग जाता था।‘ समुद्र के तटवर्ती राजाओं के पास जहाजों के बड़े-बड़े बेड़े रहते थे।

डा. राधा कुमुद मुकर्जी ने अपनी ‘इंडियन शिपिंग‘ नामक पुस्तक में भारतीय जहाजों का बड़ा रोचक एवं सप्रमाण इतिहास दिया है। - http://books.arshavidya.org/cgi-bin/process/shop/display/middle?type=display&subtype=category&arg=category&value=Ancient+India

अब एक हटकर उदाहरण देना चाहता हूँ आपको - अंग्रेजों ने एक भ्रम और व्याप्त किया कि वास्कोडिगामा ने समुद्र मार्ग से भारत आने का मार्ग खोजा। यह सत्य है कि वास्कोडिगामा भारत आया था, पर वह कैसे आया इसके यथार्थ को हम जानेंगे तो स्पष्ट होगा कि वास्तविकता क्या है? प्रसिद्ध पुरातत्ववेता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने बताया कि मैं अभ्यास के लिए इंग्लैण्ड गया था। वहां एक संग्रहालय में मुझे वास्कोडिगामा की डायरी के संदर्भ में बताया गया। इस डायरी में वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्र्ीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्र्ीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक खटिया पर बैठा था। उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।‘ इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ।

अब मैकाले की संतानों के मन में उपर्युक्त वर्णन पढ़कर विचार आ सकता है, कि नौका निर्माण में भारत इतना प्रगत देश था तो फिर आगे चलकर यह विद्या लुप्त क्यों हुई?

इस दृष्टि से अंग्रेजों के भारत में आने और उनके राज्य काल में योजनापूर्वक भारतीय नौका उद्योग को नष्ट करने के इतिहास के बारे में जानना जरूरी है। उस इतिहास का वर्णन करते हुए श्री गंगा शंकर मिश्र कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक (१९५०) में लिखते हैं-

‘पाश्चात्यों का जब भारत से सम्पर्क हुआ तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गए। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक ६ सौ टन के थे, परन्तु भारत में उन्होंने ‘गोघा‘ नामक ऐसे बड़े-बड़े जहाज देखे जो १५ सौ टन से भी अधिक के होते थे। यूरोपीय कम्पनियां इन जहाजों को काम में लाने लगीं और हिन्दुस्थानी कारीगरों द्वारा जहाज बनवाने के लिए उन्होंने कई कारखाने खोल लिए। सन्‌ १८११ में लेफ्टिनेंट वाकर लिखता है कि ‘व्रिटिश जहाजी बेड़े के जहाजों की हर बारहवें वर्ष मरम्मत करानी पड़ती थी। परन्तु सागौन के बने हुए भारतीय जहाज पचास वर्षों से अधिक समय तक बिना किसी मरम्मत के काम देते थे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के पास एक ऐसा बड़ा जहाज था, जो ८७ वर्षों तक बिना किसी मरम्मत के काम देता रहा। जहाजों को बनाने में शीशम, साल और सागौन-तीनों लकड़ियां काम में लायी जाती थीं।

सन्‌ १८११ में एक फ्रेंच यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी पुस्तक में लिखता है कि ‘प्राचीन समय में नौ-निर्माण कला में हिन्दू सबसे आगे थे और आज भी वे इसमें यूरोप को पाठ पढ़ा सकते हैं। अंग्रेजों ने, जो कलाओं के सीखने में बड़े चतुर होते हैं, हिन्दुओं से जहाज बनाने की कई बातें सीखीं। भारतीय जहाजों में सुन्दरता तथा उपयोगिता का बड़ा अच्छा योग है और वे हिन्दुस्थानियों की कारीगरी और उनके धैर्य के नमूने हैं।‘ बम्बई के कारखाने में १७३६ से १८६३ तक ३०० जहाज तैयार हुए, जिनमें बहुत से इंग्लैण्ड के ‘शाही बेड़े‘ में शामिल कर लिए गए। इनमें ‘एशिया‘ नामक जहाज २२८९ टन का था और उसमें ८४ तोपें लगी थीं। बंगाल में हुगली, सिल्हट, चटगांव और ढाका आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे। सन्‌ १७८१ से १८२१ तक १,२२,६९३ टन के २७२ जहाज केवल हुगली में तैयार हुए थे।

अंग्रेजों की कुटिलता-व्रिटेन के जहाजी व्यापारी भारतीय नौ-निर्माण कला का यह उत्कर्ष सहन न कर सके और वे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ पर भारतीय जहाजों का उपयोग न करने के लिए दबाने बनाने लगे। सन्‌ १८११ में कर्नल वाकर ने आंकड़े देकर यह सिद्ध किया कि ‘भारतीय जहाजों‘ में बहुत कम खर्च पड़ता है और वे बड़े मजबूत होते हैं। यदि व्रिटिश बेड़े में केवल भारतीय जहाज ही रखे जाएं तो बहुत बचत हो सकती है।‘ जहाज बनाने वाले अंग्रेज कारीगरों तथा व्यापारियों को यह बात बहुत खटकी। डाक्टर टेलर लिखता है कि ‘जब हिन्दुस्थानी माल से लदा हुआ हिन्दुस्थानी जहाज लंदन के बंदरगाह पर पहुंचा, तब जहाजों के अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी घबराहट मची जैसा कि आक्रमण करने के लिए टेम्स नदी में शत्रुपक्ष के जहाजी बेड़े को देखकर भी न मचती।‘

लंदन बंदरगाह के कारीगरों ने सबसे पहले हो-हल्ला मचाया और कहा कि ‘हमारा सब काम चौपट हो जाएगा और हमारे कुटुम्ब भूखों मर जाएंगे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स‘ (निदेशक-मण्डल) ने लिखा कि हिन्दुस्थानी खलासियों ने यहां आने पर जो हमारा सामाजिक जीवन देखा, उससे भारत में यूरोपीय आचरण के प्रति जो आदर और भय था, नष्ट हो गया। अपने देश लौटने पर हमारे सम्बंध में वे जो बुरी बातें फैलाएंगे, उसमें एशिया निवासियों में हमारे आचरण के प्रति जो आदर है तथा जिसके बल पर ही हम अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं, नष्ट हो जाएगा और उसका प्रभाव बड़ा हानिकर होगा।‘ इस पर व्रिटिश संसद ने सर राबर्ट पील की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।

काला कानून- समिति के सदस्यों में परस्पर मतभेद होने पर भी इस रपट के आधार पर सन्‌ १८१४ में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार भारतीय खलासियों को व्रिटिश नाविक बनने का अधिकार नहीं रहा। व्रिटिश जहाजों पर भी कम-से कम तीन चौथाई अंग्रेज खलासी रखना अनिवार्य कर दिया गया। लंदन के बंदरगाह में किसी ऐसे जहाज को घुसने का अधिकार नहीं रहा, जिसका स्वामी कोई व्रिटिश न हो और यह नियम बना दिया गया कि इंग्लैण्ड में अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए जहाजों में ही बाहर से माल इंग्लैण्ड आ सकेगा।‘ कई कारणों से इस कानून को कार्यान्वित करने में ढिलाई हुई, पर सन्‌ १८६३ से इसकी पूरी पाबंदी होने लगी। भारत में भी ऐसे कायदे-कानून बनाए गए जिससे यहां की प्राचीन नौ-निर्माण कला का अन्त हो जाए। भारतीय जहाजों पर लदे हुए माल की चुंगी बढ़ा दी गई और इस तरह उनको व्यापार से अलग करने का प्रयत्न किया गया। सर विलियम डिग्वी ने लिखा है कि ‘पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राच्य सागर की रानी का वध कर डाला।‘ संक्षेप में भारतीय नौ-निर्माण कला को नष्ट करने की यही कहानी है।

इसी तरह से कई और भारतीय विधाओं पर अतिक्रमण कर विधर्मियों ने उन्हें नष्ट करने या अपना बताने का कुत्सित प्रयास किया है... सनातनियों का परम कर्त्तव्य है की अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने हेतु तन मन धन से प्रयत्न करना प्रारंभ कर देवें...

महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों द्वारा रचित व्यूह रचनाएँ

१. ये वज्र व्यूह है... महाभारत युद्ध के प्रथम दिन अर्जुन ने अपनी सेना को इस व्यूह के आकार में सजाया था... इसका आकार देखने में इन्द्रदेव के वज्र जैसा होता था अतः इस प्रकार के व्यूह को "वज्र व्यूह" कहते हैं!

 २. ये चक्रशकट व्यूह है... अभिमन्यु की हत्या के पश्चात जब अर्जुन, जयद्रथ के प्राण लेने को उद्धत हुए, तब गुरु द्रोणाचार्य ने जयद्रथ की रक्षा के लिए युद्ध के चौदहवें दिन इस व्यूह की रचना की थी! 

३. ये मंडल व्यूह है... भीष्म पितामह ने युद्ध के सांतवे दिन कौरव सेना को इसी मंडल व्यूह द्वारा सजाया था... इसका गठन परिपत्र रूप में होता था... ये बेहद कठिन व्यूहों में से एक था... पर फिर भी पांडवों ने इसे वज्र व्यूह द्वारा भेद दिया था... इसके प्रत्युत्तर में भीष्म ने "औरमी व्यूह" की रचना की थी... इसका तात्पर्य होता है समुद्र... ये समुद्र की लहरों के समान प्रतीत होता था... फिर इसके प्रत्युत्तर में अर्जुन ने "श्रीन्गातका व्यूह" की रचना की थी... ये व्यूह एक भवन के समान दिखता था...

४. ये क्रौंच व्यूह है... क्रौंच एक पक्षी होता है... जिसे आधुनिक भाषा में Demoiselle Crane कहते हैं... ये सारस की एक प्रजाति है...इस व्यूह का आकार इसी पक्षी की तरह होता है... युद्ध के दूसरे दिन युधिष्ठिर ने पांचाल पुत्र को इसी क्रौंच व्यूह से पांडव सेना सजाने का सुझाव दिया था... राजा द्रुपद इस पक्षी के सर की तरफ थे, तथा कुन्तीभोज इसकी आँखों के स्थान पर थे... आर्य सात्यकि की सेना इसकी गर्दन के स्थान पर थे... भीम तथा पांचाल पुत्र इसके पंखो (Wings) के स्थान पर थे... द्रोपदी के पांचो पुत्र तथा आर्य सात्यकि इसके पंखो की सुरक्षा में तैनात थे...

इस तरह से हम देख सकते है की, ये व्यूह बहुत ताकतवर एवं असरदार था... पितामह भीष्म ने स्वयं इस व्यूह से अपनी कौरव सेना सजाई थी... भूरिश्रवा तथा शल्य इसके पंखो की सुरक्षा कर रहे थे... सोमदत्त, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा इस पक्षी के विभिन्न अंगों का दायित्व संभाल रहे थे...

 ५. यही प्रसिद्ध चक्रव्यूह है... इसके बारे में सभी ने सुना है... इसकी रचना गुरु द्रोणाचार्य ने युद्ध के तेरहवें दिन की थी... दुर्योधन इस चक्रव्यूह के बिलकुल मध्य (Centre) में था... बाकि सात महारथी इस व्यूह की विभिन्न परतों (layers) में थे... इस व्यूह के द्वार पर जयद्रथ था... सिर्फ अभिमन्यु ही इस व्यूह को भेदने में सफल हो पाया... पर वो अंतिम द्वार को पार नहीं कर सका... तथा बाद में ७ महारथियों द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी...

इसके व्यूह के बारे में ज्यादा चर्चा की आवश्यकता नहीं है... इस व्यूह का संपूर्ण विवरण आपको हर कही मिल जाएगा...


 
६. ये अर्धचन्द्र व्यूह है... इसकी रचना अर्जुन ने कौरवों के गरुड़ व्यूह के प्रत्युत्तर में की थी... पांचाल पुत्र ने इस व्यूह को बनाने में अर्जुन की सहायता की थी ... इसके दाहिने तरफ भीम थे... इसकी उर्ध्व दिशा में द्रुपद तथा विराट नरेश की सेनाएं थी... उनके ठीक आगे पांचाल पुत्र, नील, धृष्टकेतु, और शिखंडी थे... युधिष्ठिर इसके मध्य में थे... सात्यकि, द्रौपदी के पांच पुत्र, अभिमन्यु, घटोत्कच, कोकय बंधु इस व्यूह के बायीं ओर थे... तथा इसके अग्र भाग पर अर्जुन स्वयं सच्चिदानंद स्वरुप भगवन श्रीकृष्ण के साथ थे!